1999 से 2004 तक अटलबिहारी बाजपेयी की सरकार में भारत की जीडीपी में जो वृद्धि हुई, वो महान अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह की सरकार के शुरू के 6 सालों से कहीं कम थी.
अर्थात बाजपेयी सरकार सकल घरेलू उत्पाद यानि ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट के मामले में मनमोहन सिंह या सोनिया गाँधी संचालित मनमोहन सिंह सरकार से पीछे थी.
अब समझ लीजिये. वैसे तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं इतना भला आदमी कहाँ हूँ कि एक बुद्धिमान किन्तु बुद्धिहीनों के इशारे पर नाचने वाले मनमोहन सिंह की अकारण तारीफ करूं.
दूसरा महत्वपूर्ण आंकड़ा सुना जाए. अटल जी की सरकार में 5 साल में 600 लाख नौकरियां जनरेट हुई जब कि सोनिया संचालित मनमोहन सरकार में कुल 27 लाख नई नौकरियां पैदा हुई.
अटल जी की सरकार में कीमतें अर्थात महंगाई 4.6% की दर से बढीं जबकि सोनिया निर्देशित सरकार में महंगाई दर 6.4 प्रतिशत की दर से बढ़ती रही.
सब से महत्वपूर्ण, मनमोहन सरकार के काल में व्यापार घाटा 100 अरब डॉलर रहा जो अटल जी की सरकार में 20 अरब डॉलर सरप्लस था.
अब यक्ष प्रश्न ये पैदा होता है कि कांग्रेस की सरकार के शुरू के सालों में सकल घरेलू उत्पाद में जो बढ़ोतरी हुई अर्थात जो आर्थिक लेन देन हुआ, पैसे का जबरदस्त आदान प्रदान और व्यापार हुआ, वो किस चीज में हुआ, उससे किसे लाभ हुआ और वो लाभ दिखाई क्यों नहीं दिया.
लाभ हुआ ब्लैकमार्केटियों को, जमीन और संपत्ति के खिलाडियों को, हवाला व्यापारियों को, सरकार के दलालों और नेताओं को.
सरकार ने वैध रूप से, और शायद अवैध रूप से भी, भारी पूँजी बड़े-बड़े नोटों की शक्ल में बाजार में झोंक दी.
हजारों, लाखों नए लखपति और करोड़पति पैदा हो गए. सड़कों पर लंबी कारों, विदेश भागने वालों और विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले नवधनाढ्यों की संख्या में जबरदस्त इजाफा हुआ. मगर….
मगर इजाफा हुआ किसान की आत्महत्याओं में भी, गरीबी रेखा से नीचे जाने वालों में भी, बेरोजगारी में भी और भूख से मरने वालों की संख्या में भी.
अरबों खरबों के बड़े नोट काले धन में तब्दील होकर तिजोरियों में समा गए और बाजार के चलन से दूर हो गए.
अगर नरेन्द्र मोदी इस भयानक आर्थिक संक्रमण को इतनी जल्दी पहचानकर कार्यवाही नहीं करते तो देश भयानक आर्थिक बर्बादी की ओर जा रहा था.
पागल नहीं है देश का गरीब आदमी जो दो दो दिन लाइनों में खड़े रहकर भी मोदी जिंदाबाद के नारे लगा रहा है.
(सभी आंकड़े देश के एक प्रतिष्ठित समाचारपत्र में छपे लेख से)