कैसी विलक्षण मुखछवि है श्री भगवान की. स्वरूप अद्भुत लावण्य से अभ्यक्त है, निज देह के तेज से उद्वर्तित है निज मुखनिर्गत कान्तिसुधा से स्नात है, सौन्दर्य से अनुलिप्त है.
क्या ये सौन्दर्य प्रकाश-पुंजों का साम्राज्य है? या रूप-रत्नाकरों की दिव्यनिधि है? या लावण्यामृतमाणिक्य का परम सौभाग्य है? या तत्तत अंगावलियों का सुशोभित सिद्धान्त हैं? या विचित्र छवि का सुमधुर वैदूर्य है?
तुलसी दास भी चकित होकर कहते हैं – ‘कही न जात मुख बानी’, अधरों में अरुणिमा, दिव्य नासिका और गण्डस्थल की दिव्यातिदिव्य, दीप्तिविशिष्ट नीलिमा और नानाविध भूषणों और कुंडलों की पीतारुण जगमग ज्योति से ये कुंतल अति विलक्षण सुरंजित दीप्ति का प्रकाश करते हैं.
ऐसे इन दिव्य नील अलकों पर वृंदारण्यधाम की गो-चारण-लीला में उठी हुयी गोधूलि ऐसे आकर जमी हुई है जैसे नीलकमल का यह पराग ही हो.
ऐसे इस परागक्षुरित अलिकुलमालासंकुलित मुखारविंद पर स्वेदबिन्दु प्रसन्न तुषार-बिन्दुओं के समान सुशोभित हो रहे हैं. कैसा अलौकिक आकर्षण है कि दृष्टि देख कर तृप्त ही नहीं होती…….
कर्मजन्य नरकादि दुखों की यातनाओं से भी ज्यादा हे नाथ।
असह्य मुझे यह है कि कहता संसार मुझे है अनाथ।
मेरे साथ ही भवजाल बन्धन में बंधे नृग गजेन्द्रों को दी मुक्ति।
क्या मेरी इस उपेक्षा पर भी करुणा आपको द्रवित नहीं करती।
अकारण ही विपत्तियों से करते हो भक्तों की रक्षा।
क्या यही जानकर मैंने पुण्यपुंजों की नहीं की थी उपेक्षा?
किए थे पाप अहर्निश जानकर तुम्हें ही हे पतित पावन।
फिर भी करते हो अपेक्षा मेरी तुम नित्य परमानंदघन।
पापसरोवर में नित्य डूबा मैं तुमसे क्या कहूँ।
पुण्य मेरे शून्य हैं तुम ही बताओ क्या कहूँ।
मद मोह काम तुम्हारे सामने मुझे खींच हैं लेते।
मेरे फंसने पर मौन क्या तुम लज्जित नहीं होते?
गड्ढे में गिरते शिशु को देख शीघ्रता से पथिक हैं बचाते।
भवार्णव में डूबते तुम्हारे इस शिशु को क्यों तुम नहीं बचाते?
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नितरां नरकेअपि सीदत: किमु हीनं गलितत्रपस्य मे ।
भगवन् कुरु सूक्ष्ममीक्षणम् परतस्त्वां जनता किमालपत् ॥
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{ पण्डितराज श्री जगन्नाथ जी की अद्भुत सरसकृति “करुणालहरी” के एक अंश का पद्यानुवाद. कभी कभी भगवान को उलाहने भी दे देने चाहिए 🙂 }
|| जय श्री राम ||
– शास्त्र सन्देश