तुम्हारे सीने से उतरते झरने
जब मुंह फेर के सो जाते हैं
तो पीठ पर रेगिस्तान से
उग आते हैं
बिस्तर पर मेरा हाथ
पगडंडी सा गुज़रता है
और ख्वाब तुम्हें छू कर
लौट आते हैं
जानती हूँ
झरने रेगिस्तान की ओर नहीं मुड़ते
लेकिन प्रेम की नदी तो
उलांघ लेती है
सारी बाधाओं को…
तुम्हें यकीन ना हो तो देख लो
मेरी देह पर उगे
बारामासी फूल
हमेशा तुम्हारी रेतीली पीठ की ओर
मुंह किए रहते हैं सूरजमुखी की तरह …
झरने ना सही
मरीचिकाएँ तो दिखती ही है
तपते रेगिस्तान में…
कहती हुई कि –
ज़िन्दगी है बहने दो
प्यासी हूँ मैं प्यासी रहने दो…
रहने दो…. ना…
– माँ जीवन शैफाली