वोट पार्टी को, प्रत्याशी को नहीं
प्रत्याशी का अपना महत्व है लेकिन अंतत: उसे भी पार्टी की बात माननी होती है. इसलिए पार्टी को ही क्यों न चुने. जिस पार्टी को जितने % वोट मिले उसको उसी अनुपात में सीटें दी जाए. यदि किसी दल को 50% या अधिक वोट मिले तो अकेले उसे सरकार बनाने का मौका मिले.
50% से कम वोट होने पर दूसरे बड़े दल को भी सरकार में सहयोग करना होगा. किन्तु मुख्य पद बड़े दल को ही मिलेगा. 10% से कम वोट पाने वाले दल को कोई सीट न दी जाए.
चुनाव के पहले पार्टी जितनी सीटों पर लड़ना चाहे प्रत्याशियों की पूरी सूची जारी हो
पार्टी जितनी सीटें जीते पहले से शुरू करके उतने प्रत्याशी विजयी मान लिए जाए. पहले नंबर पर जिसका नाम हो वही पार्टी का नेता व सरकार बनाने की स्थिति में नेता सदन माना जायेगा. एक दल को बहुमत न मिलने पर दूसरे बड़े दल को सरकार चलाने में सहयोग करना ही होगा.
चुनाव घोषणा पत्र को जनता को दिया गया शपथ पत्र माना जाए
जो भी वादे किये जाएँ उनके साथ यह भी बताना होगा कि सरकार बनाने की स्थिति में उन्हें किस प्राथमिकता से व कितने समय में पूरा किया जायेगा.
प्रचार सामग्री चुनाव आयोग ही देगा
सभी पार्टियों को चुनाव खर्च की रकम चुनाव आयोग के पास जमा करानी होगी. सभी पार्टियों की चुनाव सभाएं अलग अलग दिनों में एक ही स्थान व् एक ही मंच से हों.
इस व्यवस्था से पार्टियाँ अपने काम पर ध्यान देंगी, झूठे व लोक लुभावन वादों से बचेंगी. विरोधी पार्टियों में साथ काम करने की प्रवृत्ति बढ़ेगी. पार्टियाँ अपने अच्छे कार्यकर्ताओं को आगे ला सकेंगी.
व्यक्ति को वोट न होने से धन बल व बाहुबल के आधार पर चुनाव नहीं लड़ा जा सकेगा. पार्टी में भी इस आधार पर सूची में ऊपर आना मुश्किल होगा और आ भी गए तो जनता पूरी पार्टी को नकार सकती है. चुनाव में व्यक्ति की सीधी रूचि न होने से चुनाव में होने वाला खर्च अपने आप कम हो जायगा.
मैंने यह लेख अपनी समझ से देश की जनता का लाभ देखते हुए लिखा है. कृपया इसके फायदे और नुकसान पर स्वस्थ चर्चा अवश्य करें.
– सुरेश कात्यायन