क्या अब ‘अल्पसंख्यक’ शब्दावली को बदलने की ज़रूरत है?

अल्पसंख्यक शब्द का अर्थ होता है, कम संख्या में. लेकिन क्या भारतीय समाज के धार्मिक ताने-बाने में मुस्लिम समुदाय के लिए यह शब्द सटीक बैठता है?

क्या वाकई हिंदुस्तान में जहां मुस्लिमों और अन्य धर्म के लोगों को अल्पसंख्यक माना जाता है, उन्हें अल्पसंख्यक कहना सही है..?

अल्‍पसंख्‍यक शब्‍द की परिभाषा हमारे सेक्यूलर संविधान में नहीं हैं, बेशक इसका विवरण संविधान की धाराओं में शामिल है.

पिछली कांग्रेस नीत यूपीए की केंद्र सरकार ने यह स्वीकारोक्ति संसद में एक लिखित उत्तर में की हुई है.

तत्कालीन अल्‍पसंख्‍यक कार्य मंत्रालय राज्‍य मंत्री निनॉन्‍ग ईरिंग ने एक प्रश्‍न के लिखित उत्‍तर में बताया था कि भारतीय संविधान में ‘अल्‍पसंख्‍यक’ शब्‍द का विवरण धारा 29 से लेकर 30 तक और 350ए से लेकर 350बी तक शामिल है. इसकी परिभाषा कहीं भी नहीं दी गई है.

भारतीय संविधान की धारा 29 में ‘अल्‍पसंख्‍यक’ शब्‍द को इसके सीमांतर शीर्षक में शामिल तो किया गया किंतु इसमें बताया गया है कि यह नागरिकों का वह हिस्‍सा है, जिसकी भाषा, लिपि अथवा संस्‍कृति भिन्‍न हो, यह एक पूरा समुदाय हो सकता है, जिसे सामान्‍य रूप से एक अल्‍पसंख्‍यक अथवा एक बहुसंख्‍यक समुदाय के एक समूह के रूप में देखा जाता है.

भारतीय संविधान की धारा-30 में विशेष तौर पर अल्‍पसंख्‍यकों की दो श्रेणियों – धार्मिक और भाषायी, का उल्‍लेख किया गया है. शेष दो धाराएं – 350ए और 350बी केवल भाषायी अल्‍पसंख्‍यकों से ही संबंधित हैं.

संविधान निर्माताओं को अल्पसंख्यक आयोग गठन की जरूरत नहीं महसूस हुई. राजनीति को इसकी जरूरत थी, सो सरकार ने 1992 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का कानून पारित करवाया.

इस कानून में भी अल्पसंख्यक की मजेदार परिभाषा है- अल्पसंख्यक वह समुदाय है जो केंद्रीय सरकार अधिसूचित करे.

अर्थात अल्पसंख्यक घोषित करने का अधिकार सरकार ने खुद अपने हाथ में ले लिया किसी जाति समूह को अनुसूचित जाति या जनजाति घोषित करने की विधि (अनु. 341 व 342) बड़ी जटिल है यह काम संसद ही कर सकती है लेकिन अल्पसंख्यक घोषित करने का काम सरकारी दफ्तर से ही होने का प्रावधान है..!!

भारत सरकार द्वारा 23 अक्टूबर 1993 को अधिसूचना जारी कर अल्पसंख्यक समुदायों के तौर पर पांच धार्मिक समुदाय यथा मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध तथा पारसी समुदायों को अधिसूचित किया गया था.

2001 की जनगणना के अनुसार देश की जनसंख्या में पांच धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों का प्रतिशत 18.42 है.

फिर अचानक 27 जनवरी 2014 को केंद्र सरकार ने राष्‍ट्रीय अल्‍पसंख्‍यक आयोग कानून 1992 की धारा 2 के अनुच्‍छेद (ग) के अंतर्गत प्राप्‍त अधि‍कारों का उपयोग करते हुए, जैन समुदाय को भी अल्‍पसंख्‍यक समुदाय के रूप में अधि‍सूचि‍त कर दि‍या.

वस्तुत: वोट और दल की जिस ब्रिटिश राजनीतिक प्रणाली को हमने अपनाया है, उसमें से भिन्न परिणाम निकलना ही नहीं था.

उस प्रणाली में से निकले राजनीतिक नेतृत्व का विघटनवाद और पृथकतावाद में निहित स्वार्थ पैदा हो गया है. उसी स्वार्थ को सामने रखकर सब संस्थाओं का निर्माण किया जा रहा है.

उदाहरण के लिए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग नामक संस्था का विचार कीजिए. इस आयोग की स्थापना जनता पार्टी के शासनकाल (1977-79) में हुई थी.

इस आयोग का मुख्य उद्देश्य था, अल्पसंख्यक कहलाने वाले वर्गों को क्रमश: एकात्म राष्ट्रीय समाज का अभिन्न अंग बनाना पर, उसने इस दायित्व को निभाने की बजाय अल्पसंख्यकवाद को और गहरा किया, पृथकतावाद की दिशा में धकेला.

यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री आर.एस. लाहोटी ने एक निर्णय में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को भंग करने का सुझाव दिया था और वैसे भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना के बाद ही अल्पसंख्यक आयोग की संवैधानिक व कानूनी प्रासंगिकता ही समाप्त हो जाती है.

हमारे तथाकथित सेक्यूलर संविधान के अनुसार देश की कुल जनसंख्या के 5 प्रतिशत से अधिक वाले समुदाय या वर्ग को अल्पसंख्यक नहीं कहा जा सकता तो किस आधार पर हमारी सरकारें मुस्लिमों को अल्पसंख्यक मान उन्हें विशेष रियायत देती हैं..?

यह मुद्दा सिर्फ मुस्लिम के साथ ही नहीं बौद्ध, ईसाई पर भी लागू होता है जिन्हें सरकार अल्पसंख्यक मानती है क्योंकि बौद्ध तो हिंदू धर्म अनुसार जातिप्रथा ढो रहे हैं, मनुवाद के नाम पर ब्राह्मणों को, सवर्णों को विदेशी कह, खुद को मूलनिवासी कह रहे हैं. वहीं नेपाल खुद को बुद्ध की जन्मस्थली कह रहा है तो हम अब करें क्या..?

मुसलमान, ईसाई, बौद्ध ये सारे मूलतः विदेशी लोग संविधान की नहीं बल्कि हमारी कमजोरियों का भी भरपूर फायदे ले रहे हैं.

यूँ 100 रू. के स्टांप पर शपथ घोषणापत्र में पूर्व धर्म हिंदू और हिंदू नाम ही लिखवा कर, लिखने व काम लेने की इजाजतें देकर न्यायालय, व्यवस्था और संविधान इन बौद्धों और विशेषकर ‘नवबौद्धों’ को पूर्ण रूप से अल्पसंख्यक भी नहीं बनने देता है और ना बहुसंख्यक ही रहने देता है क्योंकि इसका निर्धारण आरक्षण तथा धार्मिक धोखाधड़ी के लिये किया जाता है.

प्रदर्शित फोटो राजस्थान के भीलवाड़ा शहर का है. हाल ही में संपन्न इस्लामी त्यौहार बारावफात का…

अखबारों में कोने में प्रदर्शित छोटी सी ‘कोना-पकड़’ खबर ही बनी थी खबरी मुद्दा बनने को …बस!

क्या इस देश में अब ‘अल्पसंख्यक’ शब्दावली को बदलने की जरूरत है..?

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