भर्तृहरि गुफा : जहां से खुलता है चारों धामों का गुप्त रास्ता

ujjain bhartrahari gufa
Ujjain

उज्जैन में भर्तृहरि की गुफा स्थित है. इसके संबंध में यह माना जाता है कि यहां भर्तृहरि ने तपस्या की थी. यह गुफा शहर से बाहर एक सुनसान इलाके में है. गुफा के पास ही शिप्रा नदी बह रही है.

गुफा के अंदर जाने का रास्ता काफी छोटा है. जब हम इस गुफा के अंदर जाते हैं तो सांस लेने में भी कठिनाई महसूस होती है. गुफा की ऊंचाई भी काफी कम है, अत: अंदर जाते समय काफी सावधानी रखनी होती है. यहाँ पर एक गुफा और है जो कि पहली गुफा से छोटी है. यह गोपीचन्द कि गुफा है जो कि भर्तृहरि का भांजा था.

गोपीचंद और भर्तृहरि कि गुफा का मुख्य प्रवेश द्वार

यहां प्रकाश भी काफी कम है, अंदर रोशनी के लिए बल्ब लगे हुए हैं. इसके बावजूद गुफा में अंधेरा दिखाई देता है. यदि किसी व्यक्ति को डर लगता है तो उसे गुफा के अंदर अकेले जाने में भी डर लगेगा. यहां की छत बड़े-बड़े पत्थरों के सहारे टिकी हुई है. गुफा के अंत में राजा भर्तृहरि की प्रतिमा है और उस प्रतिमा के पास ही एक और गुफा का रास्ता है. इस दूसरी गुफा के विषय में ऐसा माना जाता है कि यहां से चारों धामों का रास्ता है. गुफा में भर्तृहरि की प्रतिमा के सामने एक धुनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है.

गौर से देखने पर आपको गुफा के अंत में एक गुप्त रास्ता दिखाई देगा जिसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ से चारो धामों को रास्ता जाता है

पत्नी के धोखे से आहत राजा भर्तृहरि के साधु बनने की कहानी :-

उज्जैन को उज्जयिनी के नाम से भी जाना जाता था. उज्जयिनी शहर के परम प्रतापी राजा हुए थे विक्रमादित्य. विक्रमादित्य के पिता महाराज गंधर्वसेन थे और उनकी दो पत्नियां थीं. एक पत्नी के पुत्र विक्रमादित्य और दूसरी पत्नी के पुत्र थे भर्तृहरि. गंधर्वसेन के बाद उज्जैन का राजपाठ भर्तृहरि को प्राप्त हुआ, क्योंकि भर्तृहरि विक्रमादित्य से बड़े थे.

राजा भर्तृहरि धर्म और नीतिशास्त्र के ज्ञाता थे. प्रचलित कथाओं के अनुसार भर्तृहरि की दो पत्नियां थीं, लेकिन फिर भी उन्होंने तीसरा विवाह किया पिंगला से. पिंगला बहुत सुंदर थीं और इसी वजह से भर्तृहरि तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित हो गए थे.

कथाओं के अनुसार भर्तृहरि अपनी तीसरी पत्नी पिंगला पर काफी मोहित थे और वे उस पर अंधा विश्वास करते थे. राजा पत्नी मोह में अपने कर्तव्यों को भी भूल गए थे. उस समय उज्जैन में एक तपस्वी गुरु गोरखनाथ का आगमन हुआ. गोरखनाथ राजा के दरबार में पहुंचे. भर्तृहरि ने गोरखनाथ का उचित आदर-सत्कार किया. इससे तपस्वी गुरु अति प्रसन्न हुए. प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने राजा एक फल दिया और कहा कि यह खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे, कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी.

यह चमत्कारी फल देकर गोरखनाथ वहां से चले गए. राजा ने फल लेकर सोचा कि उन्हें जवानी और सुंदरता की क्या आवश्यकता है. चूंकि राजा अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे, अत: उन्होंने सोचा कि यदि यह फल पिंगला खा लेगी तो वह सदैव सुंदर और जवान बनी रहेगी. यह सोचकर राजा ने पिंगला को वह फल दे दिया. रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी. यह बात राजा नहीं जानते थे.

जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा. रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया. वह कोतवाल एक वैश्या से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया. ताकि वैश्या सदैव जवान और सुंदर बनी रहे.

वैश्या ने फल पाकर सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा. नर्क समान जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी. इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है. राजा हमेशा जवान रहेगा तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देता रहेगा. यह सोचकर उसने चमत्कारी फल राजा को दे दिया. राजा वह फल देखकर हतप्रभ रह गए.

राजा ने वैश्या से पूछा कि यह फल उसे कहा से प्राप्त हुआ. वैश्या ने बताया कि यह फल उसे कोतवाल ने दिया है. भर्तृहरि ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया. सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया है. जब भर्तृहरि को पूरी सच्चाई मालूम हुई तो वह समझ गया कि पिंगला उसे धोखा दे रही है. पत्नी के धोखे से भर्तृहरि के मन में वैराग्य जाग गया और वे अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में आ गए. इसी गुफा में भर्तृहरि ने 12 वर्षों तक तपस्या की थी.

राजा भर्तृहरि की कठोर तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए. इंद्र ने सोचा की भर्तृहरि वरदान पाकर स्वर्ग पर आक्रमण करेंगे. यह सोचकर इंद्र ने भर्तृहरि पर एक विशाल पत्थर गिरा दिया. तपस्या में बैठे भर्तृहरि ने उस पत्थर को एक हाथ से रोक लिया और तपस्या में बैठे रहे. इसी प्रकार कई वर्षों तक तपस्या करने से उस पत्थर पर भर्तृहरि के पंजे का निशान बन गया.

यह निशान आज भी भर्तृहरि की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है. यह पंजे का निशान काफी बड़ा है, जिसे देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनका कद काठी व् शरीर कितना विशालकाय रहा होगा.

भर्तृहरि ने वैराग्य पर वैराग्य शतक की रचना की, जो कि काफी प्रसिद्ध है. इसके साथ ही भर्तृहरि ने श्रृंगार शतक और नीति शतक की भी रचना की. यह तीनों ही शतक आज भी उपलब्ध हैं और पढ़ने योग्य है.

गुरु गोरखनाथ के द्वारा शिष्य भर्तृहरि की परीक्षा :-

उज्जैन के राजा भर्तृहरि के पास 365 पाकशास्त्री यानि रसोइए थे, जो राजा और उसके परिवार और अतिथियों के लिए भोजन बनाने के लिए. एक रसोइए को वर्ष में केवल एक ही बार भोजन बनाने का मोका मिलता था. लेकिन इस दौरान भर्तृहरि जब गुरु गोरखनाथ जी के चरणों में चले गये तो भिक्षा मांगकर खाने लगे थे.

एक बार गुरु गोरखनाथजी ने अपने शिष्यों से कहा, ‘देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और दृढ़निश्चयी है.‘ शिष्यों ने कहा, ‘गुरुजी ! ये तो राजाधिराज हैं, इनके यहां 365 तो बावर्ची रहते थे. ऐसे भोग विलास के वातावरण में से आए हुए राजा और कैसे काम, क्रोध, लोभ रहित हो गए?’ गुरु गोरखनाथ जी ने राजा भर्तृहरि से कहा, ‘भर्तृहरि! जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियां ले आओ.’

राजा भर्तृहरि नंगे पैर गए, जंगल से लकड़ियां एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे. गोरखनाथ जी ने दूसरे शिष्यों से कहा, ‘जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझ गिर जाए.‘ चेले गए और ऐसा धक्का मारा कि बोझ गिर गया और भर्तृहरि गिर गए. भर्तृहरि ने बोझ उठाया, लेकिन न चेहरे पर शिकन, न आंखों में आग के गोले, न होंठ फड़के. गुरु जी ने चेलों से क, ‘देखा! भर्तृहरि ने क्रोध को जीत लिया है.’

शिष्य बोले, ‘गुरुजी! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए.’ थोड़ा सा आगे जाते ही गुरुजी ने योगशक्ति से एक महल रच दिया. गोरखनाथ जी भर्तृहरि ो महल दिखा रहे थे. युवतियां नाना प्रकार के व्यंजन आदि से सेवक उनका आदर सत्कार करने लगे. भर्तृहरि युवतियों को देखकर कामी भी नहीं हुए और उनके नखरों पर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही गए.

गोरखनाथजी ने शिष्यों को कहा, अब तो तुम लोगों को विश्वास हो ही गया है कि भर्तृहरि े काम, क्रोध, लोभ आदि को जीत लिया है. शिष्यों ने कहा, गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिए. गोरखनाथजी ने कहा, अच्छा भर्तृहरि हमारा शिष्य बनने के लिए परीक्षा से गुजरना पड़ता है. जाओ, तुमको एक महीना मरुभूमि में नंगे पैर पैदल यात्रा करनी होगी.’ भर्तृहरि अपने निर्दिष्ट मार्ग पर चल पड़े. पहाड़ी इलाका लांघते-लांघते राजस्थान की मरुभूमि में पहुंचे.

धधकती बालू, कड़ाके की धूप मरुभूमि में पैर रखो तो बस जल जाए. एक दिन, दो दिन यात्रा करते-करते छः दिन बीत गए. सातवें दिन गुरु गोरखनाथजी अदृश्य शक्ति से अपने प्रिय चेलों को भी साथ लेकर वहां पहुंचे. गोरखनाथ जी बोले, ‘देखो, यह भर्तृहरि जा रहा है. मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूं. वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठेगा.’ अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया. चलते-चलते भर्तृहरि का पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े, मानो अंगारों पर पैर पड़ गया हो.

‘मरुभूमि में वृक्ष कैसे आ गया? छायावाले वृक्ष के नीचे पैर कैसे आ गया? गुरु जी की आज्ञा थी मरुभूमि में यात्रा करने की.’ कूदकर दूर हट गए. गुरु जी प्रसन्न हो गए कि देखो! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है. जिसने कभी पैर गलीचे से नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श होने से अंगारे जैसा एहसास करता है.’ गोरखनाथ जी दिल में चेले की दृढ़ता पर बड़े खुश हुए, लेकिन और शिष्यों के मन में ईर्ष्या थी.

शिष्य बोले, ‘गुरुजी! यह तो ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई.’ गोरखनाथ जी (रूप बदल कर) भर्तृहरि से मिले और बोले, ‘जरा छाया का उपयोग कर लो.’ भर्तृहरि बोले, ‘नहीं, मेरे गुरुजी की आज्ञा है कि नंगे पैर मरुभूमि में चलूं.’ गोरखनाथ जी ने सोचा, ‘अच्छा! कितना चलते हो देखते हैं.’ थोड़ा आगे गए तो गोरखनाथ जी ने योगबल से कांटे पैदा कर दिए. ऐसी कंटीली झाड़ी कि कंथा (फटे-पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र) फट गया. पैरों में शूल चुभने लगे, फिर भी भर्तृहरि ने ‘आह’ तक नहीं की. भर्तृहरि तो और अंतर्मुख हो गए, ’यह सब सपना है, गुरु जी ने जो आदेश दिया है, वही तपस्या है. यह भी गुरुजी की कृपा है’.

अंतिम परीक्षा के लिए गुरु गोरखनाथ जी ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया. प्यास के मारे भर्तृहरि के प्राण कंठ तक आ गये. तभी गोरखनाथ जी ने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके नीचे पानी से भरी सुराही और सोने की प्याली रखी थी. एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर देखा पर तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरु आज्ञा भंग तो नहीं हो रही है. उनका इतना सोचना ही हुआ कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिए. भर्तृहरि ने दंडवत प्रणाम किया. गुरुजी बोले, ”शाबाश भर्तृहरि, वर मांग लो. अष्टसिद्धि दे दूं, नवनिधि दे दूं.

तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन ठुकरा दिए, युवतियां तुम्हारे चरण पखारने के लिए तैयार थीं, लेकिन तुम उनके चक्कर में नहीं आए. तुम्हें जो मांगना है, वो मांग लो. भर्तृहरि बोले, ‘गुरुजी! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया. शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता सब कुछ है. आप मुझसे संतुष्ट हुए, मेरे करोड़ों पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गए.’ गोरखनाथ बोले, ‘नहीं भर्तृहरि! अनादर मत करो. तुम्हें कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, कुछ-न-कुछ मांगना ही पड़ेगा.’ इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सूई दिखाई दी. उसे उठाकर भर्तृहरि बोले, ‘गुरुजी! कंठा फट गया है, सूई में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंठा सी लूं.’

गोरखनाथ जी और खुश हुए कि ’हद हो गई! कितना निरपेक्ष है, अष्टसिद्धि-नवनिधियां कुछ नहीं चाहिए. मैंने कहा कुछ मांगो, तो बोलता है कि सूई में जरा धागा डाल दो. गुरु का वचन रख लिया. कोई अपेक्षा नहीं? भर्तृहरि तुम धन्य हो गए! कहां उज्जयिनी का सम्राट नंगे पैर मरुभूमि में. एक महीना भी नहीं होने दिया, सात-आठ दिन में ही परीक्षा से उत्तीर्ण हो गए.’

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