फेसबुक की बोरियत से मोबाइल पटक कुछ इधर उधर ढूंढने की कोशिश कर रहा था कि एक शादी का कार्ड हाथ में लेकर पढ़ने लगा. कार्यक्रम में अंत में था ‘भीगी पलकें’.
बेटी की शादी में ये विदाई की बेला निश्चित ही पलकें भिगोती है. लेकिन मुझे तो लगता है इस ‘भीगी पलकें’ कार्यक्रम को एक बार की सीमा में नहीं बांधा जा सकता है.
बेटी के लिए लड़का देखने के लिए अपने पति और बेटे का चैन हराम करने वाली माँ की पलकें तो बेटी की सगाई के साथ शादी की डेट तय होते ही भीगना शुरू हो जातीं हैं.
खाना बनाते परोसते घर की साज संवार, शादी की तैयारी, शॉपिंग करते करते न जाने कितने ही बार माँ अपनी पलकें भिगोती हैं. जाहिर भी नहीं होने देती बेटी की माँ कि वो बात बात पर अपनी लाडो के लिए वो यूं पलकें भिगो रही हैं.
और बेटी, सगाई होते हर समय मोबाइल पर अपने मंगेतर और सहेलियों से अपने ससुराल की बातों में मस्त रहने वाली, वो बेटी लगुन की चौकी पर हँसते हँसते बैठती है.
पंडित के मंत्रोचारण के बीच अपने मम्मी पापा के स्नेहिल और भैया बहनों के शरारती चेहरों को देख न जाने कब अपनी पलकें भिगो बैठती है किसी को एहसास ही नहीं होता.
और लगन चढ़ने के साथ ही जो उसका चेहरा उठता है तो उस बेटी की डबडबाती आँखेँ शायद ही किसी की पलकें नम होने से रोक पातीं हैं. ना जब कभी आने वाली मौसी, न लड़ने वाली भाभी, ना चिढ़ाने वाली चाची, तो हुकुम चलाने वाली ताई किसी की भी नहीं…
तेल चढ़ता है तो चाचा राई नमक की रस्म करते करते ना जाने किन यादों में डूब अपनी भतीजी को उस समय भी अपने कंधे पर बिठाने और गोदी में ले उछालने को मन ही मन मचल कर, अपनी पलकें भिगो बैठता है.
और फूफा… माढ़ा गाड़ते गाड़ते अपनी ससुराल के उन दिनों मैं खो जाता है जबकि उसकी ये भतीजी कितनी ही बार ‘फूफा जी…’ कह कर गोदी में आई कितनी ही बार आते ही आते पानी का गिलास चाय का कप पकड़ाया… और अब, अब तो बस उस फूफा की भी पलकें भीग ही जाती हैं…
मामा की पलकें अपनी बहिन को भात पहिना उसको पीली चुनरी ओढाता है तो जब बहन भाई गले मिलते हैं तो दोनों ही हँसते मुस्कराते अपनी पलकें भिगो ही लेते हैं…
और जब गौरी पूजन के समय सारे परिजन गौरी मंडप में बेटी की परिक्रमा करते हुये जौ बोते हैं तो अंतिम परिक्रमा मैं मामा अपनी भांजी को गोद में यूं उठा लेता है मानो वो बचपन की वो ही खिलखिलाती मामा के साथ खेलती इतराती चिढ़ाती नखरे करती नन्ही वाली गुड़िया हो. और नहीं पता वो भांजी और मामा इस समय किस कदर पलकें भिगो लेते हैं कि दूसरों के भी गले में कुछ गट्टा सा फँसने लगता है.
अब मामा अपनी इस भांजी को गौरी का व्रत खुलवाने कोठर की ओर ले जाता है… भांजी को सारी मिठाइयां खाने को कहता है… उसे लगता है अपनी इस भांजी को यूं ही कौर कौर करके खिला सकूँ जैसे बचपन में ना जाने कितनी बार खिलाया होगा… अब वो खिला तो क्या पाता है, हाँ अपनी पलकें जरूर भिगो लेता है…
अब भांवरों की बेला आती है… कड़क ताऊ जो कि बड़े रौबदार से सब के ऊपर हुकम चलाते हुये शादी के काम निपटवा रहे होते हैं… इधर कन्यादान लेते ही उनकी कोमलता भी पलकों को भिगो ही लेती हैं…
और पिता तो जो कि ना जाने कितनी ही बार अपनी पलकों की नमी को मुस्करा के छिपा छिपा के रह रहा होता है, लेकिन कन्यादान की रस्म करते करते उसका सैलाब भी भरभरा कर पलकों को भिगो कर उठता है, तो उधर मौसा भी किन्हीं कल्पनाओं में डूब अपनी पलकें भिगो लेता है…
और भईया अपनी प्यारी भैना की भांवरों के हर फेरे पर खील देता है….. लेकिन उसकी हँसी-मज़ाक में मस्त आँखों में ना जाने कब पानी भर आ कर पलकें भिगो देता है…
वो सुबह वाली बेला जो कार्ड पर लिखी होती है ‘भीगी पलकें’… जब धीमी धीमी आवाज में गाना चल रहा होता है… ’ छोड़ बाबुल का घर …….’ ‘बाबुल जो तूने सिखाया…. साजन घर ले चली’ ‘ बाबुल की दुआएं लेती जा…’
ओह यार! ये क्या? मुझे तो अपनी पलकों की नमी छुपानी है अपनी मालकिन और बच्चों से… मेरे पलकों की नमी तो मेरे स्वेटर तक को भिगो चुकी है… ना भाई ना! अब नहीं लिखा जाएगा मुझसे कुछ भी….
लेकिन असली बेला तो लिख ही दूँ
ये बेला तो बेटी के परिजनों के लिए तो जो है सो है… लेकिन वर के पिता, बहन, भाई, रिश्तेदार, मित्र भी साथ ले जा रहे दुल्हन की भीगी पलकों में अपनी बेटी का चेहरा तो बिलखती सिसकीयों में अपनी बेटी की रुलाई की कल्पना में इस कदर खो जाते हैं कि वे सहसा कुछ पल के लिए भूल ही जाते हैं कि वे बेटी विदा करने नहीं दुल्हन लेने आए हैं. और अपनी पलकें भिगो लेते हैं…
और तो और दूल्हा भी अपनी पलकों की नमी को नहीं छुपा पाता…