अन्ना आंदोलन के समय की बात है. मैं किसी काम से एक कंपनी में गया था.
कंपनी का जो ओनर था, वो 24-25 साल का लड़का था.
बातों बातों में वो मुझसे बोलता है… ‘आप अभी तक गये कि नहीं जंतर-मंतर?
मैंने बोला… नहीं गया.
तो कहता है… अरे टाईम निकालो, जाओ. एक अकेला आदमी भ्रष्टाचार से लड़ रहा है तो उसका समर्थन करना चाहिये. पूरा देश उसके साथ है. देश बदल रहा है.
और भी कुछ लम्बे-चौड़े लेक्चर के बाद कहता है… हम तो सब जा रहे इस संडे को.
मैंने रात को घर आकर उसका फेसबुक अकाउंट चेक किया तो कवर पेज पर ‘मैं हूँ अन्ना’ लिखा हुआ अनशन के मंच का फोटो लगा हुआ था.
मैंने अपना सर पकड़ लिया कि कोई इतना बड़ा हिप्पोक्रेट… पाखंडी भी हो सकता है.
माथा पीटने की वजह यह है कि… उस बन्दे के पिताजी एक्साईज ऑफिसर हैं और उन्होंने ही अपनी काली कमाई के दम पर एक महँगे इंडस्ट्रियल एरिया में प्लॉट खरीदकर, दो मंजिला फेक्ट्री बनाकर…
एक दूसरी कंपनी से अपनी ‘सेवाओं’ और ‘सेटिंग’ के दम पर करोड़ों की कीमत वाली मशीनें और जॉब वर्क लेकर अपने उस औसत से भी कम समझदार लड़के को मालिक बनाकर उसे सेट किया हुआ था.
जिसका रोम रोम भ्रष्टाचार में सना हुआ था… उसने मुझे भ्रष्टाचार पर लेक्चर भी दिया और अन्ना आंदोलन को समर्थन भी किया.
हमारे देश में भ्रष्टाचार से लड़ने की, ईमानदारी की बात करने वाले 90% लोगों की हकीकत यही है.
दिखाना कुछ और करना कुछ. मोदी अकेला क्या क्या कर लेगा?
विमुद्रीकरण के बाद बड़े बड़े ईमानदारों (?) के सुर यूं ही नहीं बदल गये है… ‘कुछ तो वजह रही होगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता.’