विमुद्रीकरण को नोटबंदी कहने की साज़िश! कोशिश अच्छी थी कॉमरेड, पर लोग अब समझदार हैं

पूरी संभावना है कि बीवी से डांट खाते विवाहित, निरीह जीवों ने “बात मत बदलो”, का जुमला सुना होगा.

पैम्फलेट बुद्धूजीवी इसी को अपनी अभिजात्य भाषा में ‘डोंट चेंज द नैरेटिव’ कहते हुए भी पाए जाते हैं.

इस जुमले का इस्तेमाल तो देखा है मगर कभी सोचा है कि ये इस्तेमाल किया कैसे जाता है? आम तौर पर वकील मुकदमा हारते वक्त इसका इस्तेमाल करते हैं.

इसका एक अच्छा नमूना एक बार एमजे अकबर ने बताया था. अकबर भारत के विभाजन पर बात करते-करते मुहम्मद अली जिन्ना नाम के वकील का किस्सा सुना रहे थे.

वो दौर 1937 का था और मुहम्मद जिन्ना भी चुनाव लड़ रहे थे. ये चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण था, क्योंकि ये सेपरेट इलेक्ट्रोरेट के दम पर लड़ा गया था. यानि कि मुसलमान सिर्फ मोमिन को वोट देगा और हिन्दू, हिन्दुओं को ही मतदान कर सकता है.

मुहम्मद जिन्ना जो कि मुस्लिम लीग के अध्यक्ष थे उन्होंने ‘भारत का मुसलमान खतरे में है’ के नारे पर चुनाव लड़ा.

जिन्ना वो चुनाव बुरी तरह हारे थे. लोगों ने मुस्लिम लीग को अस्वीकार कर दिया और पंजाब, खैबर पख्तून जैसे मुस्लिम बहुल इलाकों में भी मुस्लिम लीग के प्रत्याशी कांग्रेसियों से हार गए. जाहिर है, इस हार से मुहम्मद जिन्ना बुरी तरह आहत भी हुए.

मुहम्मद जिन्ना एक अच्छे वकील भी थे और इस हार के बाद उन्होंने नैरेटिव बदल दिया. यानि बात बदल कर उन्होंने मुसलमान को इस्लाम किया, और कहना शुरू किया कि ‘इस्लाम खतरे में है’.

इस नारे का नतीजा था दस साल बाद का ‘डायरेक्ट एक्शन डे’. इस तारीख को ‘इस्लाम खतरे में’ के नारे पर मुसलमानों ने लाखों हिन्दुओं को बेरहमी से क़त्ल किया.

गौरतलब है कि डायरेक्ट एक्शन डे रमजान के वक्त शुरू हुआ था. रमजान के दौरान मुसलमानों को बदर की जंग याद दिलाई गई, और काफिरों का कत्ल करने के लिए उकसाया गया था.

इस साल के 23 जून यानि रमजान की शुरुआत की तारीख के पास से अगर उर्दू अखबार देखेंगे तो हरेक में फिर से बदर की जंग पर लम्बे लेख नजर आयेंगे.

अभी के दौर में अगर आप देखें तो आपको नजर आएगा कि नैरेटिव चेंज कैसे होता है. बात बदलने का एक अच्छा उदाहरण ‘विमुद्रीकरण’ को ‘नोटबंदी’ बुलाना भी है.

गरीबों की दैनिक आय तीन सौ रुपये हो पाए, इसके लिए कई प्रयास हुए हैं. इसी न्यूनतम मजदूरी की मांग करने पर कम्युनिस्ट जमींदारों ने नन्नूर का कत्लेआम किया था.

इस नरसंहार के बाद उस इलाके के सांसद कॉमरेड सोमनाथ चटर्जी ने सदन में कहा था कि डाकुओं को गाँव वालों ने मारा है.

सवाल है कि ऐसे पांच सौ से कम कमा रहे लोगों को भला पांच सौ-हज़ार के नोट बदले जाने से क्या दिक्कत होगी? रिक्शे का किराया दस-बीस रुपये होता है, उसे पांच सौ के नोट से क्या?

जनता के भड़कने पर अब फ़ौरन निर्भया मामले जैसे आन्दोलन होते हैं और सरकार को बलात्कार सम्बन्धी कानून बदलना पड़ता है. अच्छा है कि लोग वेटिकन पोषितों को पहचानने लगे हैं और ऐसा कुछ हुआ नहीं.

बाकी नैरेटिव बदल कर लोगों को उकसाने की कोशिश अच्छी थी ‘कॉमरेड’. छापों में पकड़े जाते लोगों को देखकर हमें भी पता चल रहा है कि असली दिक्कत किस-किस को थी.

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