साफ़ दिखाई दे रहा है कि आजकल रविश कुमार को ज्यादा कोई सुनता नहीं यदि सुन रहा होता तो अभी तक फेसबुक पर उनकी आलोचना शुरू हो गयी होती. सो नहीं हुई, मतलब ज्यादा लोग देख नहीं रहे थे.
हम भी चैनल सर्फ करने के दौरान गलती NDTV पर राष्ट्रवाद पर उनके विचार सुनने को रुक गए.
सोचा चलो, अभी 10 मिनट देख लेते हैं, बाद में 10 बार कान पकड़ कर उठक बैठक कर के इस गुनाह का प्रायश्चित कर लेंगे. वैसे भी रोजाना प्रातःकाल उठक बैठक करते ही हैं, कल 10 बार ज्यादा कर लेंगे.
खैर… आज वो डिस्कस कर रहे थे कि आखिर कैसे उभरता हुआ राष्ट्रवाद भारत के लोकतन्त्र के लिए खतरा है.
हिटलर का उदाहरण दे रहे थे, रवीद्रनाथ टैगोर के राष्ट्रवाद के विरोध को कोट करते हुए खिचड़ी पकाए पड़े थे. वो यहाँ तक कह गए कि ये देश विनाश कि तरफ बढ़ रहा है.
वो कहना ये चाह रहे थे कि मई 2014 के पहले भारत में लोकतन्त्र की जो महान परंपरा थी, वो आज नहीं है.
ममता दीदी गला फाड़-फाड़ के चिल्ला रही हैं, उनकी व्यथा कोई सुनने वाला नहीं है.
कांग्रेस जैसी पार्टी जो साक्षात लोकतन्त्र का दूसरा नाम है, उससे लोगों का भरोसा उठता जा रहा है.
राष्ट्रवादी गुंडे राहुल गाँधी के सभाओं में मनोरंजन करने जाने लगे हैं, कोई सीरियस ही नहीं दिखाई दे रहा है.
लोगों में इस कदर भटकाव है कि नोटबंदी जैसे जनविरोधी फैसले का विरोध करने के बजाए लोग उसे ईमानदारी का पर्व बताकर लुफ्त उठा रहे हैं.
यहाँ तक कि जब रविश कुमार ने जनसामान्य को इसके प्रति सचेत किया तो बहुत ही बदतमीजी से लोगों ने उन्हे हड़का के भगा दिया. देश का माहौल लगातार खराब होता जा रहा है.
ऊपर से कोर्ट ने सिनेमा घरों में राष्ट्रगान अनिवार्य करा दिया है, जो पुनः उभरती हुई राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रतीक है.
अब उनका क्या होगा जो अभी तक हाल में राष्ट्रगान बजने पर खड़े नहीं होते थे, कोर्ट ने तो उनसे उनका मौलिक अधिकार ही छीन लिया.
अब राष्ट्रवादी गुंडे सिनेमा घरों में ऐसे लोगों को पुलिस कम्पलेन की धमकी देकर खड़ा करा सकेंगे. इससे असहिष्णुता बढ़ेगी. देश विनाश की तरफ आगे बढ़ रहा है.
लोगों ने 2014 के पहले की महान विरासत को भुला दिया है, जब देश में जगह-जगह साल में कई बार दिवाली होती थी (जगह-जगह बम फटा करते थे), किसान आत्मनिर्भर था (क्योंकि सरकार निर्भर होने लायक ही नहीं थी).
याद कीजिये समाजवाद की वो महान विरासत जब कोयला खदान, 2G स्पेक्ट्रम पूँजीपतियों में सस्ते भाव बाँटी जाती थी, ताकि गरीब को ‘सस्ती’ उत्पाद व सेवाएँ मिलें और पूंजीपति को अतिरिक्त मुनाफा.
रिलायंस को भी केजी बेसिन से खूब मुनाफा होता था, जिसे वो सब कांग्रेस पार्टी को देते थे और देश लोकतन्त्र का मजबूत होता था.
याद कीजिये वो दिन जब सरकारी बैंकों द्वारा पूँजीपतियों को दनादन आसानी से लोन दिलवाया जा रहा था और न चुका पाने पर बेल आउट किया जाता था, ताकि देश में आर्थिक संकट न खड़ा हो.
लेकिन अब इस जालिम सरकार ने सब बंदकर उस पर जुर्माना लगा दिया, विजय माल्या जैसे ज़िंदादिल उद्योगपति की संपत्ति नीलाम करवा रही है.
देश आर्थिक संकट में हैं. देखिये, सेंसेक्स, निफ्टी भी डाउन हो गए हैं, बिज़नस स्टैण्डर्ड कह रहा है कि शेयर बाजार अब तक के सबसे खराब दौर से गुजर रहा है.
अब याद कीजिये वो लोकतान्त्रिक दिन, जब संसद में सब मिल-बैठ कर साथ-साथ खाते थे, लुटियन्स ज़ोन में प्रेम व भाई चारा हुआ करता था.
आज एक फासीवादी आदमी न खा रहा है, न खाने दे रहा है, साथ बैठने की तो बात ही दूर, कुछ सुनने को एकदम तैयार नहीं.
लुटियन्स ज़ोन का माहौल खराब है. सब हाहाकार कर रहे हैं, देश की जनता ये सब समझ नहीं पा रही है, उसमें भटकाव हैं, देश विनाश कि तरफ बढ़ रहा है.
रविश कुमार सही कह रहे हैं, ये विनाश होकर रहेगा.