– अच्छा, तो तुम क्रिसमस पर क्या कर रहे हो?
– मैं तो ड्यूटी पर हूँ.
– ओ माई गॉड!! फील सो बैड फॉर यू…
वे महिला भारतीय मूल की गुजराती महिला हैं. शायद कई पीढ़ी से विदेश में रह रही हैं. ज्यादा परिचय नहीं है, पर हिन्दू हैं इतना जानता हूँ.
– मुझे क्रिसमस से क्या?
– क्यों? तुम क्रिसमस नहीं मनाते? तुम क्या करते हो क्रिसमस पर?
– क्रिसमस का मुझसे क्या लेना-देना? मेरे पास मनाने के लिए 20 दूसरे त्यौहार हैं…यह एक दिन छोड़ देता हूँ दूसरों के लिए.
एक अँगरेज़ क्रिसमस को ज्यादा सर पर नहीं चढ़ाता. यह उसके लिए एक छुट्टी का दिन है. खाने, और ख़ास तौर से पीने का अवसर है. पर यहाँ रहने वाले हिन्दू पूरे रंग में रंग जाते हैं… क्रिसमस ट्री सजाना, गिफ्ट खरीदना, सांता क्लाउस बनना, बच्चों को क्रिसमस कैरोल गाने और नेटिविटी के प्ले में भेजना…
बिलकुल धूम धाम से, अंग्रेजों से ज्यादा अँगरेज़, ईसाईयों से ज्यादा ईसाई. लाल टोपी में, क्रिसमस ट्री के साथ सांता ऑउटफिट में सेल्फी, एक दूसरे को क्रिसमस पर बधाईयां …
डॉ राजीव मल्होत्रा की किताब “Being Different” में इस मानसिकता का बहुत सटीक उदाहरण दिया गया है. जब एक शहर का आदमी गांव जाता है तो वह क्या करता है? वह वो हर काम करता है जो गांव के लोग करते हैं. खेत खलिहान घूमता है, गन्ना चूसकर और मटर छीलकर खाता है, थोड़े दिन के लिए हो सकता है कि उसके कपड़े पहनने का तरीका बदल जाये. वह जमीन पर बैठकर हाथ से खाना सीख जाये…
ये सब उसके लिए अनुभव है, पर उसका जीवन नहीं बदलता. वापस आकर वह फिर अपनी पुरानी जिंदगी, पुराने तौर तरीकों में लौट आता है.
पर जब एक गांव का आदमी शहर जाता है तो वह क्या करता है? उसके कपड़े, खान-पान, बोली, तौर-तरीके बदल जाते हैं. और वापस आकर भी वह इन बदले हुए तौर-तरीकों को साथ रखता है.
कुछ ऐसा ही सम्बन्ध पश्चिमी सभ्यता और भारतीय सभ्यता के बीच है. पश्चिमी सभ्यता यहाँ डोमिनेंट सभ्यता है. उसे आपसे एडजस्ट करने की कोई जरूरत नहीं है. एक विदेशी पर्यटक जब भारत आता है तो वह यहाँ के कपड़े खरीद कर पहन लेता है. गले में रुद्राक्ष की माला डाल लेता है, मंदिर-मठ घूम लेता है…पर वापस लौट कर वह फिर अपनी दुनिया में चला जाता है. भारत उसके लिए एक exotic अनुभव है.. .पर वह अपना पर्सपेक्टिव नहीं खोता.
पर एक भारतीय जब विदेश में आता है तो यहाँ की संस्कृति, यहाँ के तौर-तरीके आत्मसात कर लेता है. खुद को बदल लेता है. यहाँ के त्यौहार, यहाँ के कपडे, यहाँ की सोच उसकी अपनी सोच, अपने अस्तित्व को बिलकुल बदल देते हैं.
वह क्रिसमस सिर्फ अनुभव के लिए नहीं मनाता. उसे लगता है उसे कुछ बहुत महत्वपूर्ण, बहुत कीमती मिल गया है. अपने से सुपीरियर एक संस्कृति से जुड़ना वह अपना अहोभाग्य समझता है. यह एक सांस्कृतिक आत्मसमर्पण है… उसे पता ही नहीं है, कब सिर्फ उसके सर की टोपी ही नहीं बदली, उसके सर के अंदर के विचार बदल गए, उसका पूरा अस्तित्व बदल गया…
मैं भी क्रिसमस की पार्टियों में जाता हूँ. साथ काम करने वाले महत्वपूर्ण लोगों को जरूरत के हिसाब से चॉकलेट या वाइन की बॉटल गिफ्ट करता हूँ. पर ध्यान रखता हूँ, क्रिसमस मेरे घर नहीं आता…
दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम
थोड़ी बहुत तो ज़हन में नाराज़गी रहे….