महाराष्ट्र के औरंगाबाद विश्वविद्यालय के एक कुलपति थे शंकर राव खरात. वो कथित पिछड़ी जाति से थे. उन्होंने अपनी जीवनी में अपने जीवन के कई प्रसंगों का वर्णन किया है जो बड़ा मार्मिक है.
ऐसे ही प्रसंगों में उन्होंने अपने जीवन की एक घटना लिखी है. वो कहते हैं कि जब मैं छोटा था तो एक दिन डाकिया मेरे पिताजी को एक तार देकर गया. अब चूँकि हमारे मोहल्ले में कोई पढ़ा-लिखा नहीं था तो मेरे बाबूजी दौड़े-भागे तार लेकर गाँव के एक मास्टर जी पास गये जो सवर्ण थे.
मास्टर से अनुरोध किया कि जरा मेरी ये चिट्ठी पढ़ दीजिये. मास्टर जी ने कहा, ठीक है पढ़ दूंगा पर पहले एक काम कर दो. ये जो बैलगाड़ी पर लकड़ियाँ रखी हुई है इसे फाड़ दो. मेरे पिताजी को उस बैलगाड़ी पर रखी सारी लकड़ियों को फाड़ते-फाड़ते शाम हो गई. जब सारी लकड़ियाँ खत्म हो गई तो मेरे बाबूजी मास्टर साहब के पास गये और कहा, अब तो बता दीजिये कि तार में क्या लिखा है. मास्टर जी ने तार उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा, तेरी बहन मर गई है, वही लिखा है इसमें.
जरा कल्पना कीजिये कि इससे मार्मिक कुछ हो सकता है? मानवता अपने सबसे निम्न स्तर पर वहां थी. ऐसी ही कई तिरस्कार जन्य परिस्थितियाँ पूज्य बाबा साहब के सामने भी आई होंगी, शायद केरल में नारायण गुरु के सामने भी आई होंगी पर इन सबके बाबजूद उनका आदर्श क्या था ये सोचने की बात है.
स्वामी विवेकानंद एक बार केरल की यात्रा पर थे, एक मेले में घूम रहे थे तभी अचानक सारे लोग भागने लगे मानो भीड़ में कोई सांप घुस आया हो. स्वामी जी ने एक भागते आदमी को रोका और पूछा, क्यों भाग रहे हैं सब? जवाब में उसने कहा, वो देखो एक अछूत आदमी आ रहा है.
स्वामी जी ने पूछा, तो? उस आदमी ने कहा, उसकी छाया न पड़ जाये इस डर से हम सब भाग रहें हैं, तुम भी भागो. विवेकानंद सर पकड़ कर बैठ गये और कहा केरल में इंसान बसते हैं या ये एक पागलखाना है.
केरल के इस पतनावस्था का मार्मिक वर्णन विनायक सावरकर ने अपने मोपला उपन्यास में किया है. इस केरल में उसी अछूत समाज से नारायण गुरु हुए. बिना प्रतिशोध का भाव मन में लिये उन्होंने अपने जाति वालों से कहा, सवर्ण तुमसे श्रेष्ठ क्यों हैं सिर्फ शिक्षा और संस्कार के कारण. तो तुम भी शिक्षित और संस्कारी बनो और इस अपने समाज का सही प्रबोधन कर नारायण गुरु ने अछूत समझी जाने वाली जातियों को वहां के सवर्ण जातियों के समकक्ष ला खड़ा किया.
मुझे सलाह दी जा रही है कि अरुण शौरी की लिखी किताब “वर्शिप ऑफ़ फाल्स गॉड” पढ़ो, बाबा साहेब ब्रिटिश एजेंट थे इसके प्रमाण के लिये फलाने की किताब पढ़ो या चिलाने की रिपोर्ट देखो.
भाई मेरे, जो बड़े लोग होते हैं उनके ऊपर ऐसी किताबें भी लिखी जाती है और उन किताबों के रद्द भी लिखे जातें हैं. हर महापुरुष के साथ ऐसा ही है. क्या आनंदमठ के रचयिता बंकिम पर ब्रिटिश राज के हामी होने का आरोप नहीं लगा? रवीन्द के ऊपर जार्ज पंचम की स्तुति गान लिखने का आरोप नहीं है?
1916 में हुए कांग्रेस अधिवेशन में पृथक निर्वाचन की मांग मानने वाले लोकमान्य तिलक पर तुष्टीकरण करने का आरोप नहीं लगा? भारत की आजादी में जिस कांग्रेस ने सबसे अधिक लीडर दिए उस पर तो आज तक ये आरोप है कि उसकी स्थापना ही अंगरेजी राज के हिमायतियों की भरती करने के लिये हुई थी. गांधी जी ने तुष्टीकरण करते-करते एक अलग देश ही दे दिया था.
दूध का धुला तो कोई भी नहीं है दोस्त. बाबा साहेब का हम पर ये एहसान है कि उन्होंने भारत की एक बड़ी आबादी को अपने सांस्कृतिक धारा से कटने से रोक लिया.
हम और आप अपना हृदय परिवर्तन कर लीजिये, हमारे तालाबों में हमने अपने भैंस तो नहाये पर अपने ही समाज के किसी बंधु को अस्पृश्य कहकर उसमें जाने से रोक दिया.
हमने अपने देवस्थानों के दरवाजे उनके लिये बंद रखे, अपने कुँओं के पानी से उन्हें वंचित रखा और हमारा और हमारे पूर्वजों का ये पाप न जाने कितनी सदियों से हमारे समाज के एक अंग को झेलना पड़ा है, आरक्षण अगर दर्द है तो इसे झेले तो अभी हमें सिर्फ सत्तर साल ही हुआ है.
बौद्धिक होना अच्छी बात है पर इधर-उधर की किताबों से प्रसंग ढूंढ कर किसी को लांछित करना अच्छा नहीं है. आप या हम एक ही साथ हिंदूवादी और जातिवादी नहीं हो सकते.
अगर हिंदूवादी होना है तो अपनी दृष्टि व्यापक कीजिये और बाबा साहब के मानस को जेहन में रखकर उनका समग्र मूल्यांकन कीजिये. कम से कम मेरे लिये वो ‘फॉल्स गॉड’ नहीं हैं.
हिन्दू माता की उस महान संतति का स्मरण करते हुए समरस समाज की ओर बढ़िये, वर्ना इसी जातिगत और बौद्धिक श्रेष्ठता के अभिमान के चलते हमारा एक बड़ा समाज अतीत में हमसे कटा था और ऐसा ही रहा तो कम से कम बारह करोड़ अनुसूचित जाति और सात करोड़ अनुसूचित जनजाति को भी हमसे दूर होते वक़्त नहीं लगेगा.
ये बीस करोड़ निकल गये फिर गाते रहना अपने जातिगत अहंकार और बौद्धिकता के गीत.