भारत की झुग्गी बस्तियों की कहानी

Slum dwelling india

अपने मकान में रहना सबको सुखद अनुभूति प्रदान करता है. लेकिन जहाँ कुछ अमीर लोग एक से अधिक मकान बनाकर आराम की जिन्दगी गुजारते हैं, वहीं गरीब अपने पूरे जीवन में एक भी मकान नहीं बना पाता है.

जैसा कि पिछले दो दशकों में गाँवों से शहरों की ओर लोगों का पलायन बढ़ा है, क्योंकि गाँवों में रहकर उचित रोजगार, शिक्षा, और चिकित्सा प्राप्त करना लोगों के लिए मुश्किल हो रहा है.

कृषि में होने वाले नुकसान की वजह से लोग कृषि छोड़कर रोजगार के तलाश में शहर आते हैं. कृषि मंत्रालय के अनुसार खेती पर आश्रित लोगों में से 40%, अगर विकल्प मिले तो, तुरंत खेती छोड़ देंगे. साथ ही अनेकों हस्तशिल्प, कुटीर तथा लघु उद्योग भी उजड़ते गए हैं.

खेती करने में धन की लागत बढ़ती जा रही है तथा किसानों की जमीन को विभिन्न सरकारी योजनाओं की तहत छीना जा रहा है. इस प्रकार आय के लिए गरीब लोग पहले से ही ठसा-ठस भरे हुए शहर में आते हैं और फिर झुग्गीयों में रहने को मजबूर होते हैं.

अधिकांश झुग्गीयाँ  सरकारी जमीनों पर ही होती हैं. झुग्गी बस्ती को एक ऐसे आवासीय क्षेत्र के रूप में समझ सकते हैं जहाँ पर मकान, संकीर्ण या दोषपूर्ण सड़क व्यवस्था, प्रकाश और साफ-सफाई की कमी, शुद्ध वातावरण का अभाव होता है.

इस प्रकार झुग्गीयाँ एक मानव के स्वस्थ और संतुलित निवास के लिए अयोग्य होती है. गरीब लोग शहर में दिन भर मजदूरी करने को मजबूर होते है तथा अपने मालिकों के शोषण के कारण इतना भी नहीं कमा पाते कि कहीं अच्छे किराये की मकान लेके रह सके.

ध्यान देने वाली बात ये है कि झुग्गी बस्तियों में रहने वालो की संख्या पिछले तीन दशकों में दुगनी हो गई है. भारत सरकार के सर्वे 2011 के अनुसार, मुंबई, कलकत्ता, चेन्नई और दिल्ली में शहरी आबादी का क्रमशः 41%, 29%, 28% और 15% झुग्गी बस्तियों में ही रहता है.

इन झुग्गी बस्तियों में औसतन 5 लोग एक कमरे में अपना गुजर करते हैं. दिल्ली सरकार के आंकड़ो के अनुसार, लगभग सात सौ एकड़ में झुग्गियां हैं और इनमें लगभग दस लाख लोग रहते हैं. इन लोगों में लगभग 80% प्रतिशत हिंदू और लगभग 18% प्रतिशत मुस्लिम हैं. दिल्ली में लगभग 90% झुग्गियों अनियमित कालोनी के रूप में सरकारी जमीन पर है, जिसमे में से 46% MCD और PWD पर, 28% रेलवे और 16% दिल्ली सरकार की जमीन पर है.

झुग्गी बस्तियों में जनसुविधायें, साफ पेयजल न मिलने से वहां पर बीमारियां फैलती हैं. साफ़ सफाई न होने की वजह से वहाँ के लोग हैजा, टीबी जैसी गंभीर बीमारियों के शिकार होते हैं. वहां पर रहने वाले लोगों को अनेकों सरकारी सुविधाओं का लाभ नहीं मिल पाता है.

ऐसे गरीब अपने आप को ठगा मह्सूस करते है, और यदि दोबारा वे अपने गांव वापस लौटते भी हैं तो यहां से टीबी, पीलिया, चर्मरोग जैसी बीमारियां तोहफे में ले जाते है और असमय काल के मुंह में समा जाते हैं.

अक्सर सरकारी जमीन पर बसी इन झुग्ग्गीयों को कभी कभी अतिक्रमण हटाने के अधिकारिक प्रयास के दौरान तोड़ना पड़ता है, जिस पर हर पार्टी द्वारा वोट बैंक की गन्दी राजनीति देखने को मिल जाती है.

उदाहरण के रूप में, साल 2015 के जाड़े में रेलवे प्रशासन ने दिल्ली के शकूर बस्ती में करीब सैकड़ों झुग्गियों को तोड़ दिया था. इसके बाद इस मामले पर राजनीति शुरू हुयी और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने केंद्र सरकार पर निशाना साधने लगे थे. जबकि कांग्रेस ने इसके लिए दिल्ली सरकार को जिम्मेदार ठहराया.

बाद में अदालत के हस्तक्षेप के झुग्गी बस्तियों को तोड़ने से रोका गया और लोगों को वहाँ रहने की मंजूरी मिल गयी. परन्तु ये झुग्गी समस्या का कोई स्थाई समाधान नहीं है. देश के अनेक राज्यों तथा अनेक शहरों में ऐसे ही अल्पकालिक सोच के साथ सरकारे और न्यायलय अपने कर्तव्य का इतिश्री समझ लेती है.

भाजपा तथा कांग्रेस और सभी दल दिल्ली चुनाव के पहले झुग्गीयों को नए मकानों में तब्दील करने का वादा करते हैं परन्तु कभी भी इसके लिए ठोस प्रयास नहीं किये. चुनाव जीतने के बाद हर सरकार द्वारा इस वादे को बड़ी आसानी से भुला दिया जाता है और झुग्गी-झोपड़ी की समस्या जस की तस बनी रहती है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों एवं निम्न आय वर्ग के लोगो को आवास ऋण पर ब्याज सहायता बढ़ाकर 6.5% तक करने की योजना को हरी झंडी दे दी है. ऐसे प्रयास कुछ हद तक गरीबों के लिये लाभदायक हो सकते है.

वैसे तो अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में भी देश को झुग्गी-मुक्त बनाने की कोशिश की गयी थी. शहरी विकास प्राधिकरण भी इस काम में विफल रहा हैं और जमीनों को सही तरीके से गरीबो को उपलब्ध नहीं करा पाया है.

दुखद स्थिति तो तब हो जाती है जब दिल्ली हाईकोर्ट अपमानजनक टिप्पणी करते हुए कहता है इन झुग्गी के लोगों को नया प्लाट देना जेबकतरों को ईनाम देना जैसा है. कुछ लोग इन गरीब झुग्गी वालों को चोर और बदमाश बताते हैं तो मुझे समझ नहीं आता कि शहरों में बड़े बड़े महल बनाने वाले कहाँ के इमानदार लोग हैं?

सरकारें अपनी जीडीपी की रफ़्तार को प्रचारित करने में लगी हुयी है जबकि इन गरीबों को सम्मानपूर्ण जिन्दगी देने में कोई गंभीर नहीं दीख रहा है. विचित्र बात तो ये है कि झुग्गी बस्ती के लोगों का निवास वैध नहीं होता है पर उनका वोट वैध होता है.

निवास वैध न होने के कारण ये लोग कई सरकारी सुविधाओं और अपना हक़ नहीं जता पाते हैं. स्थानीय पुलिस और सरकारी अधिकारी इन झुग्गियों में रहने वालो लोगों का मनमानी शोषण करते है और इस प्रकार झुग्गी वाले अपने को दोयम दर्जे का नागरिक समझते हैं.

शहरी नियोजन में झुग्गीवासियों के समुचित पुनर्वास के बारे में कभी सरकारें चिंतन नहीं करती और न ही वैसी नीतियां और वैसे कार्यक्रम बनाये जाते है जो ग्रामीणों का शहरों में पलायन को रोक सके. वैसे तो आजादी के बाद से ही दिल्ली के बीच के झुग्गी बस्तियों से लोगों को हटाकर कहीं शहर के किनारें पुनर्वास कालोनियों में रखने का प्रयास चल रहा है.

2010 में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों के लिए बड़ी संख्या में झुग्गी-बस्तियों के लोगो को पुनर्वास कालोनियों में भेजा गया गया था. सरकारी नियमों के अंतर्गत ऐसी पुनर्वास कालोनियां “नियोजित शहर” के अंतर्गत आती है और इसका विकास करना सरकार का कर्तव्य होता है.

परन्तु जमीनी सच्चाई यह होती है कि इन पुनर्वास कालोनियों में भी वो सभी बुनियादी सुविधाओं का अभाव होता है जो झुग्गी बस्तियों में देखने को मिलता है. इसी कारण से समाजसेवकों और विशेषज्ञों ने पुनर्वास कालोनियों को “नियोजित झुग्गी बस्तियां” कहना प्रारंभ कर दिया हैं.

इस प्रकार से इन लोगों को इनके कब्जे में लिए गए जमीन से हटा कर पुनर्वास कालोनियों में रखने से जहाँ एक तरफ इनका पूरा सामाजिक ताना-बाना और रोजगार प्रभावित होता है तो दूसरी तरफ उस मकान पर भी उनको बहुत सीमित अधिकार होते है. दिल्ली के कई पुनर्वास कालोनियों में पानी और अनेक सुविधाएँ सरकार के अतिरिक्त दूसरे गैर-सरकारी समाजसेवी संगठन द्वारा किये जाते हैं.

समस्या केवल किसी एक जगह की नहीं है, प्रत्येक महानगर में ऐसी झुग्गी बस्तियां हैं जो किसी सरकारी विभाग की जमीन पर हैं. ऐसे में इस समस्या का निदान हेतु कब तक हर विभाग अपने अधिकारियों की मदद से ऐसी बस्तियों को उजाड़ता रहेगा?

मेरा मानना है कि झुग्गी बस्तियों में रहने वालों की मानवीय आवश्यकताओं का समाधान कानूनी और दयापूर्वक ही करना होगा. केंद्र तथा राज्य सरकारों के बीच तालमेल बैठाना होगा जो कि अलग-अलग पार्टियों की सरकार में अधिक कठिन होता है.

किसी भी पार्टी को सिर्फ चुनाव जीतने के लिए झुग्गी-झोपड़ी के लोगों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिये. सरकार को झुग्गी बस्तियों और पुनर्वास कालोनियों में रहने वालो के लिए अल्पकालिन और दीर्घकालीन योजना बनानी पड़ेगी.

अल्पकालिन योजना के अंतर्गत सरकार को मूलभूत सुविधाएं वहां के लोगों को देनी चाहिए और साथ ही नए जमीन के अतिक्रमण पर रोक लगानी चाहिये.

दीर्घकालिन योजना के अंतर्गत गाँव से शहरों में पलायन की रफ़्तार को धीरे-धीरे कम करना चाहिये. ऐसा पलायन तभी रुक सकेगा जब गाँव में ही रहते हुए कोई भी नागरिक शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार और न्याय अपनी योग्यता के अनुरूप प्राप्त कर सकेगा.

इसके लिए सरकारों को ग्रामीण क्षेत्र के विकास पर मुख्य रूप से ध्यान देना चाहिए. आज महानगर की इन झुग्गी बस्तियों की तस्वीर भारत को विश्व जगत में एक पिछड़ा और कमजोर देश दिखाने में मदद करता है.

जल्दी ही भारत को इस समस्या से निजात पाना चाहिए जिससे कि झुग्गी बस्तियों के गरीबों का भी जीवन सम्मानपूर्ण हो सके. सरकारों को ऐसी योजनाओं के क्रियान्वयन से बचना चाहिए जो समाज में असमानता को बढ़ाएं तभी हम किसान, जवान और विज्ञान को साथ ले के दौड़ पाएंगे.

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