एक बुज़ुर्ग दंपति का बेटा जो दिल्ली के एक बड़े विश्वविद्यालय में पढ़ता था कुछ दिन की छुट्टियों में गाँव आया.
माँ ने लाड़ले के आने की ख़ुशी में प्यार से लड्डू बनाये थे, सो लाकर सामने रख दिये और बोली – ले बेटा, लड्डू खा, तेरे लिए बनाये हैं!
बेटे ने प्लेट की ओर देखा तो उसमें 2 लड्डू थे…. हर बात में तर्क करने वाला बेटा ‘प्रगतिशीलता’ दिखाते हुए बोला- माँ तीन लड्डू क्यों दे दिए, दो वापस ले जाओ!
माँ बोली- बेटा तीन कहाँ हैं? दो ही तो हैं…. देख अच्छे से!
बेटा बोला- कैसे दो हैं…. पूरे तीन लड्डू हैं. मैं साबित कर सकता हूँ….
बेचारी माँ ठहरी ग्रामीण, बोली- कैसे?
उसने कुछ यूँ गिनती शुरू की….1 और 2, इन्हें जोड़ कर हुए ना तीन?
माँ बोली- नहीं बेटा मुझे तो दो ही दिख रहे हैं…..
बेटा तो बेटा अड़ गया, बोला- तीन ही हैं….
बार बार वही तर्क, साबित करने का वही तरीका, 1 और 2 इन्हें जोड़ हो गए ना पूरे तीन….
माँ बेचारी कहाँ तक बहस करती, चूल्हा-चौका करना था. चुपचाप बेटे की हाँ में हाँ मिलाकर चली गई और जाते जाते ‘अजी सुनते हो’ की टेर लगा गई….
सो वहीं पास में ही बाबू जी बैठे थे, कुछ काम कर रहे थे, पर माँ-बेटे की बात भी सुन रहे थे, उन्होंने सब सुना पर एक माँ और बेटे के बीच बोलना ठीक ना समझा….
पर अब माँ जा चुकी थी, वे चुपचाप उठकर आये और बोले- हाँ बेटा क्या समझा रहे थे अपनी माँ को? ज़रा हम भी तो सुनें….
बेटा बोला- रहने दीजिए बाबू जी, आप नहीं समझेंगे.
बाबू जी बोले- बिलकुल समझेंगे बेटा बताओ तो सही….
बेटा फिर शुरू, बोला- बाबू जी ये कितने लड्डू हैं? 3 ना….
बाबू जी ने देखे और बोले- 2 हैं बेटा….
लड़के ने फिर वही तरीका अपनाया, 1 और 2 = 3….
बाबू जी JNU में पढ़ने वाले बेटे का किरान्तिकारी स्वभाव तत्काल भाँप गए और बोले…. हाँ बेटा तुम सही कहते हो, तुम्हारी माँ गँवार है ना, कहाँ समझती ये सब, लड्डू 2 नहीं 3 ही हैं, मैं तुमसे सहमत हूँ…
बेटा खुश हो गया, उसे लगा उसने सच्चा किरान्तिकारी बनने की पहली परीक्षा पास कर ली.
तभी बाबू जी ने किरान्ति कुमार की माँ को आवाज़ दी, माँ भागी चली आई….
बाबू जी बोले- एक लड्डू उठाओ, खाओ.
माँ ने खा लिया, दूसरा खुद बाबू जी खा गए और बेटे से कहा- बेटा वो जो तीसरा वाला है ना, तुम खा लेना….
बेटा अब बाप का मुँह देखता रह गया. बाबू जी ने धीरे से बताया कि वो बचपन में शाखा जाया करते थे.