भारत की नदियों को जोड़ने की सार्थकता पर एक पक्षीय सहमति या असहमति से पहले इसके ऐतिहासिक संकल्पना, इससे आर्थिक, सामाजिक, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय लाभ व हानि की विवेचना अतिआवश्यक हो जाती है.
वैसे तो किसी भी योजना के दोनों पक्ष सदा ही मौजूद रहते हैं, परन्तु योजना का क्रियान्वयन इस तथ्य पर होना चाहिए कि इसका लाभ कितने अधिकाधिक लोगों तक पहुँच सकेगा.
भारतीय नदियों को जोड़ने की संकल्पना पहली बार ब्रिटिश हुकूमत में सर आर्थर कॉटन द्वारा आयी थी. परन्तु उनका मकसद जलमार्ग विकसित कर, देश की बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा का दोहन था क्योंकि उस समय भारत में सड़कों और रेल-मार्गों का विकास अपने पहले चरण में था.
आजादी के बाद भी इस योजना को लेकर 1971 – 1972 में तत्कालीन केंद्रीय जल एवं ऊर्जा मंत्री डॉ. कनूरी लक्ष्मण राव ने गंगा तथा कावेरी को जोड़ने की आवाज उठाई थी.
वैसे तो डॉ. लक्ष्मण राव खुद नेहरू और इंदिरा गांधी कि सरकारों में जल संसाधन मंत्री भी थे, परन्तु इन सरकारों ने इस योजना में कभी कोई रूचि नहीं दिखाई तथा अर्थाभाव के कारण भी वो इसे अल्प प्रभावकारी मानते थे.
यद्यपि इस राष्ट्रीय नदी जोड़ो परियोजना को अनेक विशेषज्ञों द्वारा समर्थन प्राप्त होता रहा है, जिसमें डॉ. एम्. विश्वेश्वरैया, डॉ. राम मनोहर लोहिया, तथा डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम भी शामिल हैं. परन्तु इन विशेषज्ञों ने इस योजना को लागू करने से पहले इसके तकनीकी तथा वैज्ञानिक पहलू पर विचार करने की आवश्यकता पर जोर दिया है.
भारत के नदियों को जोड़ने के लिए प्रथम सार्थक प्रयास एन. डी. ए. सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा वर्ष 2002 में किया गया था. परन्तु, उस समय यह योजना अनेक प्रकार के विवादों के चलते न्यायालय तक पहुँच गयी और तब तक एन. डी. ए. सरकार सत्ता से बाहर हो गयी.
इस सरकार में जल विशेषज्ञ के तौर पर काम करने वाले डॉ. सुरेश प्रभु ने इस योजना को भारत के लिए वरदान माना था. सत्ता परिवर्तन के बाद वर्ष 2004 से ही यू. पी. ए. सरकार ने इस योजना में कोई रूचि नहीं दिखायी.
यद्यपि न्यायालय ने 28 फरवरी 2012 को इस योजना को चरणबद्ध तरीके से अमल में लाने की हरी झंडी दे दी थी परन्तु यू. पी. ए. सरकार ने राजनीतिक मतभेदों तथा इसे एन. डी. ए. सरकार का एजेंडा मानकर कभी गंभीरता से नहीं लिया.
नदियों को जोड़ने के क्रम में 37 हिमालयी तथा प्रायद्वीपीय नदियों को शामिल किया गया है. इस योजना के संपादन हेतु अनेकानेक झीलों, नहरों तथा बांधों को अप्राकृतिक रूप से बनाने की आवश्यकता पड़ेगी.
इस योजना के पक्ष में यह सबसे मजबूत तर्क दिया जाता है कि इससे बाढ़ तथा सूखे की समस्या से निजात मिलेगी. जैसा कि इस राष्ट्रीय नदी जोड़ो परियोजना का आधार यह है कि बाढ़ वाले नदी बेसिन का पानी सूखे वाले नदी बेसिन को आवश्यकता पड़ने पर दिया जा सकता है.
इस प्रकार से अंतर बेसिन जल स्थानांतरण से जल संतुलन कर के बाढ़ तथा सूखे कि समस्या से निजात पाया जा सकता है. परन्तु ऐसे तर्क को केवल एक गणितीय मॉडल के आधार पर स्वीकृत नहीं किया जा सकता है.
नदी कोई दो छोटे बर्तनों में रखा जल नहीं है जो ऐसे जल स्थानांतरण पर कोई प्रतिक्रिया नहीं करेगा. विविध जलवायु वाले भारत में, किसी नदी का समुद्र या खाड़ी में गिरने तक की प्रक्रिया में अनेक प्रकार की पारिस्थितिक भूमिकाओं का निर्वाह करना पड़ता है.
भारतीय जल विकास एजेंसी के अनेक रिपोर्टों में भी यह माना गया है कि हिमालय की नदी-घाटियां बेहद संवेदनशील है तथा इसके अनेक हिस्सों के बारे में बहुत ही कम जानकारी उपलब्ध है.
नदियों के एकीकरण का गणितीय मॉडल पानी की अनेक सूक्ष्म पारिस्थितिकी भूमिकाओं का कोई मूल्यांकन नहीं करता और जल संसाधनों की उपयोगिता को महज पानी के संग्रहण, स्थानांतरण और वितरण के लिहाज से परखता है.
नदियाँ प्रारम्भ से ही हमारे यहाँ प्रकृति का अभिन्न अंग मानी जाती रही हैं, तथा इसमें किसी प्रकार का मानवीय हस्तक्षेप मानव समाज के लिए विनाशकारी ही सिद्ध होगा.
मुझे नदियों को अपरिहार्य रूप से जोड़ने का कोई औचित्य नजर नहीं आ रहा है, क्योंकि ऐसी अदूरदर्शी सोच मानव को विनाश के पथ पर मोड़ेगा. जैसा कि निम्नांकित विमर्श के आधार पर सिद्ध किया जा सकता है :-
सभी नदियों का अपना एक पारिस्थितिकी तंत्र होता है तथा वह संतुलित वातावरण के लिए अतिआवश्यक होता है. नदियों के जल में किसी प्रकार की वृद्धि अनावश्यक नहीं बल्कि वहाँ के पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित करने के लिए होती है और अगर इस अतिरिक्त पानी का उपयोग दूसरे उद्देश्य के लिए किया गया इसका दुष्परिणाम पर्यावरण पर पड़ेगा.
अलग-अलग नदियों में अलग-अलग प्रकार के पादप तथा जीव जंतु पाए जाते है. ऐसे जीव जब एक नदी से दूसरे नदी में जाएंगे तो वे वहाँ जीवित नहीं बच सकते है. जैसा कि गोदावरी तथा गंगा के जल का रंग तथा तासीर, वैज्ञानिक शब्दावली में पी.एच., अलग-अलग होता है. अतः प्रश्न यह है कि क्या गंगा में पाई जाने वाली डाल्फिन मछलियाँ गोदावरी में जीवित रह पाएंगी ? ऐसे अनेकों उदाहरण दिए जा सकते है.
नदी जोड़ो परियोजना को पूरा करने हेतु अनेको बड़े बांध, जलाशय और नहरें बनानी होंगी जिससे आस पास की भूमि दल-दल का शिकार हो जायेगी तथा कृषि के योग्य नहीं रहेगी जिससे खाद्यान उत्पादन में भी कमी आ सकती है.
कहाँ से कितना पानी कहाँ स्थानांतरण करना है इसके बारे में भी पर्याप्त अध्ययन और शोध नहीं हुए हैं अतः बाढ़ की समस्या भी आ सकती है. नदियों पर बनने वाले बाँध पर्यावरण असंतुलन पैदा करते हैं और इसी कारण से नर्मदा नदी पर निर्माणाधीन बाँध अनेकों समाजसेवीयों जैसे अरुंधती रॉय तथा मेधा पाटकर तथा बड़े जन मानस के विरोध के चलते आज तक अधूरा ही पड़ा हुआ है.
वस्तुस्थिति यह है कि ऐसी योजना को राजनीतिज्ञों, कारपोरेट तथा अफसरों द्वारा आवश्यकता से अधिक महत्व देकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने की कोशिश की जा रही है.
यह समझना अति आवश्यक है कि नदियों को जोड़े बिना भी परंपरागत तरीकों को अपनाकर ही बाढ़ तथा सूखे की समस्या से निजात पाया जा सकता है. हमारे सभी आधुनिक शहरों में आज से 30-40 साल पहले तक बड़े- बड़े तालाब हुआ करते थे और ये शहर में होने वाली वर्षा के जल को अपने में संग्रहीत कर हमें बाढ़ से बचाते थे और फिर बाद के गर्मी के महीनों में सूखे कि समस्या से भी निजात दिलाते थे.
परन्तु हमारे लालच और नई राजनीति ने इन सब जगहों पर कब्जा कर वहाँ जगमगाते मॉल तथा हाउसिंग सोसायटी आदि बना दिए हैं । जैसा कि जल का मुख्य स्रोत बारिश है अतः पुराने मृत पड़े तालाबों तथा जलाशयों को पुनर्जीवित कर जल भंडार की प्रणाली को अपनाना हमारे लिए बाढ़ तथा सूखे की समस्या हल करने के लिए बहुत जरूरी है न कि नदियों को जोड़ना.
यह बात भी अति महत्वपूर्ण है कि करीब-करीब सभी नदियों में उच्चतम बहाव एक ही समय लगभग जुलाई से अक्टूबर के बीच में ही होता है. अतः नदियों को जोड़कर एक ऐसा वितरण नेटवर्क बनाना असंभव है जो बाढ़ तथा सूखे की समस्या से निजात दिला दें.
सरकारों द्वारा जमा दस्तावेजों में पूर्ण तकनीकी का अभाव है जो यह नहीं बताते कि कैसे इस परियोजना से उत्पन्न दुष्परिणामों को रोका जा सकता है. इस परियोजना में बड़े बांध, जलाशय और नहरें बनाने से अनेकों लोगों के विस्थापन और पुनर्वास की समस्याएं भी पैदा होंगी.
अब तक किसी भी स्तर पर ऐसे लोगों लोगों के भविष्य को सुरक्षित करने पर किसी सरकार ने कोई सार्थक पहल नहीं की है. ऐसी महत्वाकांक्षी योजना के सफलता के लिए भूमि अधिग्रहण जैसे कानूनों को भी बदलना पड़ेगा जो कि इतना आसन नहीं है जैसा कि किसानों द्वारा नोएडा में क्रियाशील आन्दोलन संकेत करता है.
ऐसा देखा गया है कि पहले भी अनेक निर्माण कार्यों के चलते विस्थापित लाखों लोगों के पुनर्वास के लिए अब तक कोई व्यवस्था नहीं की गयी है. नदियों को जोड़ने हेतु पर्यावरण और वन मंत्रालय से मंजूरी लेने के बाद ही लाखों हेक्टेयर वन-जंगल काटने पड़ेंगे जो पुनः पर्यावरण के लिए हानिकारक होंगे.
इसके साथ ही नदियों के बेसिनों के बीच के प्राकृतिक पर्वत-पहाड़ियां भी नदियों को जोड़ने में अवरोध बनेंगी जिनके ऊपर से पानी को ले जाने के लिए भारी तादाद में बिजली खर्च होगी.
यदि जमीनी सुरंगो या पहाड़ के किनारे-किनारे लम्बे रास्ते से नहर बनाकर पानी ले जाया जाए तो उसमें आवंछित खर्च होगा. सरकारें तर्क देती रही है कि अनेक नए बांधों से पुनः अतिरिक्त बिजली बना ली जायेगी परन्तु ऐसा आसन नहीं है क्योंकि इसके विरोध में स्थानीय जनता तथा अनेको एन.जी.ओ. रहते है. कर्नाटक में कुडनकुलम परियोजना का अब तक सफल न होना इसका एक उदाहरण है.
नदियों को जोड़ने के क्रम में सबसे बड़ी बाधा राज्यों की अपनी स्वतंत्र जल नीति प्रदान करेगी. अतः किसी भी केंद्र सरकार द्वारा सभी राज्यों से इस योजना के लिए अनुमति लेना ही असंभव है.
हमारे भारत में तो अनेक राज्य ही आपस में पानी के लिए लड़ते है. जैसा कि कर्नाटक और तमिलनाडू के बीच कावेरी जल विवाद अभी भी विद्यमान है. राजस्थान तथा मध्यप्रदेश भी आपस में चम्बल नदी के पानी को लेकर लड़ते रहते हैं.
नदियों को जोड़ने के क्रम में अंतर्राष्ट्रीय सहमति भी जरूरी हो जाती है. अब अगर नदियों को परस्पर जोड़ने की योजना अमल में लायी गयी तो अनेक अन्तराष्ट्रीय संधि की शर्ते पूरी नहीं हो पाएंगी. जैसा कि ब्रह्मपुत्र तथा गंगा के जोड़ने पर बांग्लादेश भी तीखी प्रतिक्रिया दे चुका है, जो सही भी है क्योंकि ऐसी योजना से बांग्लादेश को अनेकों नुकसान उठाना पड़ सकता है.
इस स्वप्निल योजना में नदियों के प्राकृतिक उद्गम, बहाव, पथ-विकेंद्रीकरण तथा सिकुड़ने जैसे बिन्दुओं पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है. अमेरिका स्थित शोध संस्थान एन.सी.ए.आर. ने भी बताया है कि विश्व कि अनेक नदियों के जल में अगले कुछ दशकों में लगभग 50 – 80 % तक कमी आ जायेगी, जिसमें भारत की गंगा, अमेरिका की कोलराडो नदी, तथा चीन की पीली नदी भी शामिल है.
अतः यह विचारणीय है कि जब धरती के बढ़ते तापमान तथा हिमनद ग्लेसियरों के पिघलने के कारण नदियाँ ही जब अपना अस्तित्व खो देंगी तो, ऐसी महत्वाकांक्षी योजना कितना लाभप्रद हो पायेगी.
जो भारत की आम जन कल्याणकारी योजनायें हाथ में है उसके लिए भी धन की कमी ही कही जाती है, तब भारत की नदी जोड़ो परियोजना में अपार धन की लागत, इसकी अव्यावहारिकता तथा इससे होने वाली अपूरणीय क्षति, इस बात की अनुमति नहीं प्रदान करती है कि ऐसी स्वप्निल योजना हेतु कोई भी समय और श्रम लगाना चाहियें.
इस योजना के आधार में ही मानव समाज की अदूरदर्शी सोच तथा उपभोगवादी दृष्टि प्रमुखता से रही है. अतः जल स्रोतों के असंतुलन को दूर करने हेतु अन्य वैकल्पिक परम्परागत माडलों पर विचार करना चाहिये.
ऐसी काल्पनिक, अति महत्वाकांक्षा से प्रेरित तथा पर्यावरण के लिए विनाशकारी नदी जोड़ो जैसे अवैज्ञानिक परियोजना को गरीब भारतीय लोकतंत्र में क्रियान्वयित करने का कोई प्रयास नहीं करना चाहिये.