शौर्य दिवस पर उन सभी आत्मओं को साधुवाद जिन्होंने अपने देह की चिंता न करते हुए अपना महत्तम बलिदान दिया, उनकी कीर्ति अक्षय रहेगी.. और जो जीवित हैं, उनकी जीवटता को नमन करता हूँ.
सम्भव है कि हमारी स्मृतियों में वह सारे नाम सिमट ना पाएं, किंतु उन्होंने सामूहिक प्रयासों से इस दिन को इतिहास को भी दृष्टि डालने पर विवश किया..
किंतु ऐसे प्रतीक चिन्ह मिट जाने चाहिए जो बार बार हमें गुलामी की याद दिलाने पर मजबूर करते हैं. उनके स्थान पर हमारी सभ्यता के मूल प्रतीकों को स्थापित किया जाना हमारी वर्तमान पीढ़ी और आने वाली पीढ़ियों को भी संजीवनी देगा.
मैं बेईमान होकर किसी व्यक्ति के योगदान को भूल नहीं रहा, बल्कि शौर्य दिवस की स्मृतियों में एक सामूहिक हुँकार को कहीं ना कहीं एक विराट रूप में ढूंढ रहा हूँ. बाला साहेब.. सिंघल साहब, गुजर गए लेकिन कार्य सिद्धि नहीं हुई जो हो जानी चाहिए थी.
क्या मैं अकेला हूँ ? या मेरे जैसे करोड़ों लोग हैं जिनके दिलों में रामलल्ला तो बसे हुए हैं लेकिन उसी रामलल्ला को जमीन पर कैसे उतारा जाये, जानकारी कुछ भी नहीं है.. सिवाय संतोष और आत्म सांत्वना के.
विभिन्न संगठनों के प्रयासों में देरी हुई तो हम विकल्प ढूंढने लगे.. विकल्प क्या हो सकते हैं ? सिर्फ विधि या सहमति से यदि विजयश्री मिलती तो हमने कश्मीर से लेकर अक्साई चिन के छीने गये “बंजर” टुकड़ों को अपना लिया होता! विचारणीय प्रश्न है..
सत्ता प्रतिष्ठान की ओर देखना हमारी मजबूरी नहीं, अकर्मण्यता की ओर संकेत देता है. कहाँ से चले थे, कहाँ आ गए.. या बार-बार रक्तदान देने से रक्त ही पतला हो गया ??? तथ्य तो खुदाई में भी मिले हैं लेकिन हम आत्ममुग्ध भी बहुत जल्दी हो जाते हैं. कोढ़ अंदर ही अंदर खाये जा रहा, हमें पता नहीं ! शायद हमारे भीतर का पौरुष ही सड़ गया है, इसलिए अड़ना भूल गया है. रक्त ब्लड बैंक की शान हैं, क्या इसे मस्तक पर लगाकर संकल्प नहीं ले सके ?
क्या हम अपनी भौगौलिक सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिए एक विशालकाय सेना को सम्मान पूर्वक रख सकते हैं, एक और विभाजन से बचने के लिए. तो हम अपनी सांस्कृतिक स्मृतियों को जीवित रखने के लिए छोटा सा प्रयास भी नहीं कर सकते ?? वो जिनके नाम और कर्म को हमारी सनातन सभ्यता जन्म से लेकर मृत्यु तक जीती है ??????
निश्चित ही हमें अपनी समीक्षा और सुधार की गति को बढ़ाना होगा, केवल राम ही नहीं कृष्ण, शिव, विष्णु.. सभी पूज्य आक्रांत हैं. और हम लगातार सिमटते हुए जा रहे हैं. सिर्फ ऑस्ट्रेलिया या अमेरिका में एक छूट के तहत स्थापित भवनों की भव्यता में नहीं रमें, हमारा मूल क्या है.. इस विषय पर विचार और प्रतिकार दोनों ही अपरिहार्य हो गए हैं.