भगवान श्रीकृष्ण का एक नाम ‘रणछोड़’ भी है. तो क्या हुआ, उससे उनकी पूजा बंद हुई कभी?
छत्रपति शिवाजी महाराज ने गुप्त शस्त्र से अफज़ल खान का वध किया.
उससे पहले अफज़ल खान ने अपनी ताकत और कद का इस्तेमाल कर के उन्हें bear hug में जकड़ लिया था और कटार से वार भी किया था.
कवच के कारण शिवाजी महाराज बच गए और उन्होंने पलटवार कर के अफज़ल खान को ख़त्म किया.
लेकिन इसके लिए आप को कई वामिस्लामी शिवाजी महाराज को दगाबाज़ कहते मिल जायेंगे.
इतना ही क्यूँ, यही वामिस्लामी लोग औरंगज़ेब की कैद से पलायन करने के कारण उन्हें कायर भी कहते मिलेंगे.
वीर सावरकर के ख़त को माफीनामा प्रचारित कर के उन्हें भी कायर कहते यही वामिस्लामी मिलेंगे.
याने इनकी इच्छा यही थी कि शिवाजी महाराज या वीर सावरकर वहीँ मर जाते…
नहीं मरे, इसलिए ये केवल उन्हें बदनाम कर रहे होते हैं ताकि लोगों के मन में वे प्रेरणा न बन पाए.
इसे वैचारिक हत्या माना जा सकता है. अगर वे दोनों उन प्रसंगों में मर जाते तो क्या ये वामिस्लामी उनकी प्रशंसा करने वाले थे?
लगता है कि लगातार यह प्रचार से कहीं न कहीं हमारे मनों में यह बात उतारने में ये कामयाब हुए हैं कि सम्मान के लिए व्यक्ति का मरना जरुरी है.
अगर वो पलायन कर के अपनी जान बचाए तो वो सम्मान के लायक नहीं, अवमान का भागी है, अपमान का अधिकारी है.
कृपया यह जान लीजिये कि अगर मृत्यु से कोई काम सधता है तो ही मृत्यु का सामना और स्वीकार उपयोगी है. वही हौतात्म्य है, वही बलिदान है. वही गौरवदाई है.
अन्यथा ऐसे मर जाना अक्लमंदी नहीं होती. पलायन कर के जिन्दा रहे तो सही मौका देखकर दुबारा लड़ सकते हैं, जीत सकते हैं. संघर्ष जारी रखने के लिए ज़िंदा रहना आवश्यक है.
अब यह बताइये, रामलीला मैदान से बाबा रामदेव अगर न भागते और मारे जाते तो कौन सा कार्य सधता और सधता तो किसका कार्य सधता?
बाकी हमारे इज्जत देने, न देने से बाबा को क्या फर्क पड़नेवाला है?