वैचारिक मतभेद के बीच ज़मीन तलाशते आदर्श लिबरल और सेक्युलर

सेक्युलर पाण्डे दो-दो सीढ़ियां फांदते दूसरी मंज़िल पर बने कमरे में घुसे तो उनकी साँसें चढ़ी हुई थी और चेहरा रक्तिम था. वक्र हो चली भृकुटियों के बीच से उन्होंने आदर्श लिबरल की ओर देखा.

सेक्युलर_पाण्डे : बहुत खूब मियां! तारिख तो याद है ना आज की? इसी काले दिन देश की गंगा जमुनी तहजीब का बेड़ा गर्क करके फ़ासीवादी ताकतों ने अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ करायी थी. एक तुम हो, जिससे इस दिन हुई घटना की लानत मलम्मत तक ना हुई!

आदर्श_लिबरल : अरे बैठिये पाण्डेय जी! आप भी ना, राई का पहाड़ ही बना देते हैं, बस!

कुर्सी बढ़ा कर आदर्श लिबरल ने सेक्युलर पाण्डे को बिठाया और रम मिली कॉफ़ी से मग भरकर उनको थमा दिया.

सेक्युलर_पाण्डे : तो क्या लानतें नहीं भेजोगे इस वारदात पर? वो फ़ासीवादी तो ‘शौर्य दिवस’ मनाने पर तुले हैं!

आदर्श_लिबरल : आप यहाँ दोनों समुदायों के त्यौहार के तरीकों पर भी ध्यान दीजिये. एक समुदाय हमेशा जीत के जश्न पर त्यौहार मनाता है, चाहे वो दिवाली हो या होली, किसी न किसी जीत का उत्सव है.

दूसरी तरफ एक ऐसी कौम है जो 12-1400 साल से मुहर्रम का मातम मनाती है और सुन्नी समुदाय आज भी शिया के घर पानी नहीं पीता इसी मुहर्रम के कारण.

तो हम इस समुदाय के ‘शौर्य दिवस’ को 800 सालों की कई छोटी बड़ी हारों के बीच एक छोटी सी जीत के जश्न की तरह देखते हैं. दूसरी तरफ के छाती पीटने के बंद होने की उम्मीद भी नहीं करते, वो उनकी परंपरा है.

सेक्युलर_पाण्डे : तो क्या इसे तुम एक का शुभ को याद रखना और दूसरे का नफरत को जिन्दा रखना मानते हो?

आदर्श_लिबरल : इसी वैचारिक मतभेद के बीच तो हमारी ज़मीन है! उसे भूल जाएँ? उन्हें इन मुद्दों में ही सर खपाने दीजिये तो GST बिल की आड़ में हम मजदूरों के हक़ की लड़ाई के नाम पर अपनी नयी जमीन खोज पाएंगे. ‘धर्म अफ़ीम है’ और मजदूरों के नशे में होने का हमें फायदा!

“हम्म्म! समझा”, कहते-कहते सेक्युलर पाण्डे ने रम (Rum) मिश्रित ब्लैक कॉफ़ी का आखिरी घूँट लिया. फिर मग रखकर उन्होंने टेबल से GST Bill का मसौदा उठाया और उसे पढ़ने लगे.

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