स्वर्गीय जयललिता के मृत्युशैय्या पर पड़े होने के समय से ही उन पर ओछे मज़ाक बनाये जा रहे हैं. कई लोग बौद्धिकता की चादर में लपेट कर इन छिछली बातों को जस्टिफाई कर रहे हैं.
कुछ जयललिता को इसलिये गालियां दे रहे हैं कि उन्होंने वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. लेकिन कोई भी गहराई में उतरना नहीं चाहता.
गुजरात दंगों पर जयललिता के बेबाक बयान शायद ही किसी ने सुने होंगे.
इन बयानों में उन्होंने गोधरा में मुस्लिमों द्वारा ट्रेन में आग लगाये जाने की भर्त्सना की थी.
इसके साथ ही उन्होंने इस मामले में एकतरफा घटिया बयानबाज़ी करने वाली पार्टियों को भी लताड़ा था.
जयललिता भले ही सेक्युलरिज़्म की चादर ओढ़ती थीं पर उन्होंने जनता परिवार जैसी टुच्ची पार्टियों के विपरीत कभी भी हिंदुओं का अहित नहीं होने दिया.
करूणानिधि ने हमेशा खुलेआम हिंदू-विरोधी बयान दिये हैं लेकिन जयललिता ने हमेशा हिंदू विरोधी ताकतों को सर उठाने से रोका है और तमिलनाडु को केरल नहीं बनने दिया.
वाजपेयी सरकार को समर्थन देने की दो ही शर्तें जयललिता ने रखी थीं.
पहली, सुब्रह्मण्यम स्वामी को वित्त मंत्री बनाना और दूसरी तमिलनाडु में करूणानिधि की सरकार को बर्ख़ास्त करना.
वाजपेयी जी ने दोनों ही शर्तें नहीं मानी और अंततः जयललिता ने एनडीए सरकार से समर्थन वापस ले लिया.
अविश्वास प्रस्ताव में मात्र एक वोट के अंतर से वाजपेयी सरकार हार गई.
यह एक वोट का अंतर रामविलास पासवान के धोखे के कारण हुआ, लेकिन चूंकि अभी पासवान, मोदी सरकार के सहयोगी हैं इसीलिये कोई उन्हें कुछ नहीं कह रहा.
वाजपेयी जी के समय भाजपा सेक्युलर बनने की राह पर अग्रसर थी और हिंदुत्व को छोड़ कर गांधियन सोशलिज्म को अपना रही थी.

इसी कारण सुब्रह्मण्यम स्वामी अलग रहे थे और जब भाजपा वापस पुराने हिंदुत्व के रंग में रंगी तब सुब्रह्मण्यम स्वामी भाजपा से जुड़ गये.
यह बात खुद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने भाजपा में जनता पार्टी के विलय के दौरान कही थी.
सिर्फ विरोध के नाम पर ऐसा ओछापन न दिखायें बल्कि मामले की जड़ तक जायें.
आंकलन, कार्यों से करना चाहिये, न कि किसी से मतभेद या मतैक्यता के आधार पर.