हरियाणा के मुरथल में जाट आंदोलन की आड़ में गैंगरेप के नाम पर मीडिया ने जो आतंक मचाया, उसकी पोल अब खुलने लगी है. जो हुआ ही नहीं, वो अखबारों के पन्नों और टीवी के परदे पर कर डाला गया. नाट्य रूपांतर बना बना कर लोगों के दिमागों में ये भरने की कोशिश की गई कि हरियाणा में जातीय संघर्ष किस हद तक नफरत में बदल चुका है, जबकि ऐसा कुछ था ही नहीं.
लेकिन ये पोल खुलने से क्या कोई फर्क पड़ेगा? दिल्ली के जेनयू कैंपस में आतंकवादी की शान में बेशर्मी का परिचय देने वालों की पैरवी के लिए सारे मीडिया चैनल्स, अखबार और राजनीतिक पार्टियां ताल ठोक के खड़ी गई थी.
यहां तक कि जो सच दिखा रहे थे, उनको झूठा साबित करने के लिए बाकायदे गैंग बना कर हम पर अखबारों और टीवी चैनलों के ज़रिए हमले किए गए. और जब सीएफएसल की रिपोर्ट आ गई कि फुटेज में कोई छेड़छाड़ नहीं की गई थी, तो सबने अपना फोकस ऐसे शिफ्ट किया जैसे उनसे ईमानदार मीडिया हाउस और पॉलिटिकल पार्टी पूरे देश में कोई नहीं है.
बहुत दिन नहीं बीते, मुंबई में एक आदमी ने आरोप लगा दिया कि चमड़े का बैग रखने की वजह से गौरक्षकों ने उसके साथ दुर्व्यवहार किया, ऑटो रिक्शा वाले ने उसे ऑटो से उतार दिया. मामले की बाकायदे पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराई गई.
दो दिन तक टीवी चैनलों पर असहिष्णुता का नंगा नाच चलता रहा. लेकिन जब पोल खुली और आरोप फर्ज़ी पाए गए, तो किसी चैनल ने ये बताना तक ज़रूरी नहीं समझा कि जिस खबर को ले कर हम दो दिन तक नरक मचाए हुए थे, वो असल में फरज़ी निकली और मामला दर्ज कराने वाले सज्जन एक राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं के इशारे पर काम कर रहे थे.
हरियाणा के ही फरीदाबाद के पास सुनपेड़ गांव में एक दलित के घर में आग लगा दिए जाने की खबर रही हो या कि रोहतक की बहादुर लड़कियों का मामला, जिन्होंने चलती बस में छेड़खानी करने पर युवकों की धुनाई कर डाली थी. पड़ताल के बाद खबरों में झोल निकले तो ‘म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के’ – कहने वाले टीवी चैनल ऐसे गायब हुए जैसे उन्हें तो खबर के बारे में कुछ पता ही न रहा हो.
मुंबई में एक सोसायटी में मकान नहीं मिलने पर हंगामा मच गया कि लड़की मुस्लिम है इसलिए मकान देने से मना कर दिया. टीवी पर दो दिन की हंगामेबाज़ी के बाद सच सामने आया तो टीवी चैनल चुपचाप खिसक लिए, दर्शकों को ये तक बताना ज़रूरी नहीं समझा कि कहानी का सच क्या था और उन्होंने क्यों इसे धार्मिक रंग दिया.
सबसे ताज़ा एपिसोड तो नोटबंदी का है. बेशक लोगों को दिक्कत हो रही है, लेकिन जो कैमरे पर ये कहने को तैयार नहीं हैं कि उन्हें नोटबंदी से तकलीफ़ है – उनके मुंह में माइक डाल डाल कर अपने मुताबिक़ बात सुन पाने में नाकाम पत्रकार उन्हें मोदी के गुंडे क़रार दे कर अपनी खीझ निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे.
हालांकि कथित ‘मुरथल कांड’ की चौबीसों घंटे और फुल पेज कवरेज के बावजूद, सबसे अच्छी बात ये रही कि हरियाणा के लोगों ने न तो इस पर कभी यकीन किया और न ही इसकी वजह से एक दूसरे पर अविश्वास.
अब जबकि कोर्ट में अमेकस क्यूरी ने साफ़ कहा है कि एसआईटी जांच में मीडिया रिपोर्ट झूठी साबित हो गई है, लिहाज़ा उस पत्रकार पर मुकदमा चलाया जाए, तो देखने की बात ये होगी कि मीडिया अपने अंदर झांकता है या नहीं. हालांकि इसकी उम्मीद मत ही रखिएगा.
– रोहित सरदाना के फेसबुक पेज से साभार