प्रजावत्सल होने के साथ-साथ विद्याव्यसनी होना भी राजा के लिए परमावश्यक है. दरअसल, गद्दी पर बैठते ही आज का राजा इस उधेड़बुन में लग जाता है कि कहीँ उसके नीचे से कोई उसकी जाजम खिसका न दे.
इसीलिए उसका अधिकाँश समय अपने को प्रतिष्ठापित/सुरक्षित करने में निकल जाता है और इसी वजह से साहित्य और साहित्यकार उसके लिए कोई बहुत ज़्यादा मतलब या महत्व नहीं रखते.
कौन नहीं जानता कि साहित्य, समाज और संस्कृति का रक्षक होता है. बिना साहित्य के सभ्य समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती है. जिस समाज का अपना साहित्य नहीं होता वह समाज कभी भी विकास नहीं कर सकता और न ही किसी स्थान पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकता है.
साहित्यकार का कार्य मात्र कलम चलाना नहीं है बल्कि समाज के विकास में सक्रिय रूप से अपनी भूमिका का निर्वाह करना भी है. साहित्य के बिना राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति निर्जीव है. साहित्यकार का दायित्व है कि वह ऐसे साहित्य का सृजन करे जो राष्ट्रीय एकता, मानवीय समानता, विश्व-बन्धुत्व और सद्भाव के साथ-साथ हाशिये के आदमी के जीवन को ऊपर उठाने में उसकी मदद करे.
अपने लेखन द्वारा अच्छी सोच का प्रचार-प्रसार करे और मनुष्य की चित्वृत्तियों का परिष्कार कर उसे ‘अच्छा इंसान’ बनने की प्रेरणा दे. जो काम भाषणों-व्याख्यानों से नहीं हो सकते वे अच्छे लेखन से हो सकते हैं.
सरकार की रीति-नीति का सम्यक खुलासा करने में एक निष्पक्ष और जागरूक लेखक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. ऐसी स्थिति में सरकार का कर्तव्य बनता है कि वह साहित्य-संस्कृति के प्रति उदासीन न होकर और उसे हाशिए पर न डाल कर इसके संरक्षण-संवर्धन लिए कुछ प्रभावशाली कार्य योजनाएं बनाये.