प्राचीन काल के “सत्ता प्रतिष्ठान “से लेकर वर्तमान “राज्य “के उत्प्पति के समय से ही राज्य अपने क्षेत्र के निवासियों से कर लेता रहा है.
जब सत्ता शक्ति मात्र से वैधता लेती थी तो लोग भय वश कर का भुगतान किया करते थे इसलिए कर न देने पर कठोर दंड के उद्धरण मिलते हैं. जब समाज धर्म प्रधान हुआ और राजा को पृथ्वी पर धार्मिक सत्ता से वैधता मिलने लगी तब कर भुगतान न करना ईश्वर की आज्ञा मानने से इंकार करने जैसा अपराध माना जाने लगा.
किन्तु आधुनिक विश्व में विधि के शासन और लोकतान्त्रिक मूल्यों के आधार पर बनने वाली सत्ताओं जिन्हें वैधता के लिए जनता,कानून और न्याय की आवश्यकता पड़ी तब से करारोपण के राज्य सिद्धान्त में आधारभूत बदलाव आये.
नोट बंदी को राज्य के दायित्व और उसके लक्ष्यों के आलोक में ही देखा जाना चाहिए, राजतन्त्र, सामंतवाद और व्यक्ति केंद्रित शक्ति आधारित सत्ता और आधुनिक लोकतान्त्रिक वैधानिक सत्ता में एक बुनियादी फर्क है लोकतान्त्रिक संवैधानिक देश समता और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को स्वीकारते है साथ ही विषेशाधिकार को नकारते है जबकि अन्य किसी भी शासन ये खूबियां नही पायी जाती है.
करारोपण के राज्य के अधिकार के पीछे ये सुदृढ़ मान्यता है कि ऐसा करके मुद्रा को वैधानिकता मिलती है और करारोपण के बुद्धिमत्ता पूर्ण प्रयोग द्वारा आय और संम्पति के असमान वितरण को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करता है.
आर्थिक आंकड़े ये बताते है कि लगभग 15%लोगो के पास समस्त आर्थिक संसाधनों के 80%पर कब्ज़ा बना हुआ है ऐसे में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा और श्रम का कोई महत्व नहीं रह गया है ऐसे में श्रम की प्रतिष्ठा में नोट बंदी का फैसला मिल का पत्थर साबित होगा.
भ्रष्टाचार के आर्थिक पक्ष के साथ साथ मनोसामाजिक अंतरसंबंधों पर निर्णायक प्रभाव पड़ने वाला है.
आर्थिक गतिविधि और उसका समस्त संचालन बेहद जटिल और अमूर्त तत्वों से प्रभावी होती है इसलिए चुनौती है जिस पर सरकार बेहद सतर्क और सावधान है पर इसके मनोसामाजिक प्रभावों के प्रति मैं बेहद सकरात्मक हूँ.
जब किसी समाज में रुपया इंसान से अधिक महत्व रखने लगे, जब चेतना शरीर के तल पर अटक जाय, तो ऐसे में नोट बंदी मनोसामाजिक स्थिति के सुधार के लिए एक आवश्यक अपेक्षित कदम था.
अभी आगे के कदम मनोसामाजिक स्थिति के लिए दशा और दिशा तय करेंगे.