क्योंकि मेरे घर में घड़ी नहीं है….

मेरी जिन्दगी में एक बड़ी फाँक है. और इस फाँक को बंद करने का कोई जुगाड़ मुझे नहीं दिखता.

यहां विदेश में मेरा जीवन कोल्हू के बैल सा, बल्कि यह कहूँ कि रोबोट सा है. जैसे एक मशीन अपना काम नियम क़ानून के मुताबिक़ करती है, वैसे ही मैं करता हूँ. सोने का नियम, जागने का नियम. काम का नियम, आराम का नियम. शौच का भी नियम. नियम और क़ानून. नियम और क़ानून.

जब मैं भारत जाता हूँ, बल्कि हवाई जहाज़ में बैठते ही मैं यह चोला उठाकर फेंक देता हूं. फेंकता नहीं हूं, बल्कि वह चोला साँप के केंचुल की तरह स्वत: उतर जाता है. मैं वहाँ बनारस में एक बिल्कुल दूसरा आदमी होता हूँ.

औरों को छोड़िए कई बार तो मैं ही अपने आप को नहीं पहचान पाता. मैं गाड़ी का गियर ही बदल देता हूँ. बल्कि यह कहूँ कि मैं गाड़ी से उतर जाता हूँ.

मुझे लगता है यह मेरी survival strategy है जो अनायास ही मेरा चार्ज ले लेती है. शायद घड़ी की दबोच से मुक्त कर मुझे थोड़ी साँस ले लेने के लिए.

मेरा यहाँ वहाँ घूमने जाने का बहुत मन नहीं है. रिश्तेदारी निभाना या लोगों के यहाँ शिष्टाचार निभाने के लिए जाना – इन बातों से मुझे कोफ़्त होती है. मैं बस एक जगह रहना चाहता हूँ. घड़ी मैं नहीं पहनता. मेरे घर में घड़ी नहीं है.

लोग पूछते हैं -डाक्साब, कल आपका क्या कार्यक्रम है? मेरा एक ही उत्तर होता है : अभी मैं सोऊँगा. कल की बात कल. मेरी दिनचर्या, जो अब टूट फूट गई है, सुबह चार बजे काहिविवि परिसर में दस पंद्रह किलोमीटर दौड़ से शुरु होती थी.

आप को वहाँ यदि एक अकेला दढ़ियल भोर में चार बजे हाथ में डंडा लिए (कुत्तों को भगाने के लिए) दौड़ता दिखे तो वह मैं ही हूँ. लौट कर अरविन्द कॉलोनी के मकान में बाहर आँगन में बने गुसलखाने में ठंडे पानी की तेज धार के नीचे देर तक नहाना और फिर कड़कड़ झकझक सफ़ेद कुर्ता पायजामा पहनकर बाहर बरामदे में एक घंटे तक चाय पीना और कोई किताब पढ़ना.

और फिर नाश्ता और आराम. फिर उठकर कपड़ों की गठरी उठाना और उन्हें रगड़ रगड़ कर साफ करना. सफ़ेद कुर्ते पायजामों में रिवाइव (स्टार्च) लगाकर और फिर उन्हें निचोड़ कर धूप में पसारना. और जब सूख जाएँ तो रिक्शे पर उन्हें ले जाकर लंका पर इस्त्री करने के लिए दे आना.

मुझे धोबी पर विश्वास नहीं है. वह मेरी बराबरी नहीं कर सकता. मेरे धुले सफ़ेद कपड़े चमकते रहते हैं. लंका से लौट कर फिर नहाना और फिर नया कुर्ता पायजामा पहनना.

दोपहर के भोजन के बाद पढ़ते पढ़ते सोना. फिर शाम की चाय और टहलना. लंका से इस्त्री किए हुए कपड़े ले आना और फिर बाहर बैठ कर एक दो घंटे शास्त्रीय संगीत सुनना. और फिर खा पी कर पढ़ते पढ़ते सो जाना.

अब इतनी व्यस्त रूटीन में कहीं जाने आने के लिए और socialisation के लिए समय ही नहीं बचता. पारिवारिक झंझटों में मैं बहुत कम पड़ता हूँ, वहाँ मेरी गति नहीं है. और अब मुझे पागल और बेकार समझ कर बहुत लोगों ने छोड़ भी दिया है.

मेरे घर परिवार के लोग, मेरे मित्र मुझे ऐसे देखकर ग़लतफ़हमी पाल लेते हैं कि जैसे मैं तो मजे मार रहा हूँ. पैसे बरसते हैं, मैं उन्हें लूटता हूँ और ऐश करता हूँ. उन्हें मेरी दूसरी जिन्दगी का पता नहीं. एकबार मेरे साथ एक हफ्ता काम करें तो उनकी आधी चर्बी खिसक जाय.

– प्रदीप सिंह

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