ज़िन्दगी अपने आप में है एक आतंकवादी हमला

एक दिन हम सब 12×18 इंच के एक फ़ोटो फ़्रेम के भीतर सिकुड़ कर रह जाएँगे और हमारी मुस्कुराती शक़्लें अगरबत्ती के धुएँ के पीछे छुप जाएँगी.

वो लोग जो जीवन भर हमारी फक्कड़ हँसी से ख़ौफ़ खाते रहे या हमारे मुक्त केश बाँधने के लिए चौड़े फीते बनाते रहे, हमारी अच्छाइयाँ गिनते नहीं थकेंगे. हमारी ज़िन्दगी की बड़ी से बड़ी ग़लती पर लाड़ के रेशमी पर्दे पड़े होंगे और हमारी छोटी-छोटी जीतों का आकार अचानक ज्यूपिटराना हो रहेगा.

हम सब आगे या पीछे लगभग एक ही तरह की प्रतिक्रियात्मक स्मृति में टाँक दिए जाएँगे जहाँ कुछ घन्टों की सनसनी को दुःख कहते हैं.

जा रे ज़माना !
इतना भी क्या उथला जाना
गूगल के सहारे किसी को ढूँढा जा सकता
तो यक़ीनन सबसे पहले मैं खुद को ढूँढ़ निकालती

कोई पढ़ने या न पढ़ने वाला भी अगर मुझे जानना चाहे तो कृपया गूगल का भरोसा न करे
न ही उन्हें सुने जो मेरे जाने के बाद मेरी शान में कुछ कह रहे हैं

सुनना तो बस ! उन्हें,
जो कुछ नहीं कह पा रहे.
मेरा क़िस्सा ख़त्म होने पर कुछ ( एकदम कु छ ) लोग ज़रूर ऐसे बच रहेंगे जो जानते थे कि
मुझे सही होने की उतनी चाह नहीं है
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जितनी कि सत्य होने की
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दरअसल मेरे दोस्त !
ज़िन्दगी अपने आप में एक आतंकवादी हमला है
जिससे किसी तरह बच निकली कविता अपने क्षत-विक्षत टुकड़ों में भटकती
दुःस्वप्न बन अपने कवि की नींद चुनती है

हमारे दुःस्वप्न कितनी ही कविताओं का श्मशान घाट हैं
हमारी कविताएँ आँखों देखी मौत का ऐतिहासिक दस्तावेज़

{ उसी कविता का कोई टूटा हुआ अंग / बा बु षा }

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