भीतर के खौलते लावे को समेटे चुपचाप लेटी है पृथ्वी, मेरी माँ की तरह….
दर्द की ऐंठनो के साथ ही उसे संयमित होकर घूमना है अपनी धुरी पर. चाँद का चेहरा धुंधला गया है, अपने ही आँसुओं से.
जैसे मेरी माँ को सूर्योदय होते ही करना होता था स्नान, रात के भरे ठन्डे जल से कि कुँए की घिरनी की चर्र चूँ से जाग न जाएँ घर के लोग. कमर के तीखे दर्द में भी वह बोलती जाती थी, राम राम कि कोई सुन न ले उसकी सिसकियों का स्वर. माँ, चूल्हा जलाते हुए स्नेह करती थी धुँए से जो उसकी फूँकनी से बच कर आ जाता था उसकी आँखों में, रो लेती थी माँ, पता नहीं गीली लकड़ियों के लिए या कमर के दर्द के लिए.
तुम भी माँ की तरह ही लेटी हो कमर के दर्द में. तुम्हारी अनावृत स्फटिक सी काया के भीतर छुपा है कोई शेषनाग जो रह रह कर हिलाता है अपना शीश, और तुम तड़प जाती हो.
मेरी अदृश्य उंगलियाँ सहलाती हैं तुम्हारे बदन का पोर-पोर, निचोड़ लेना चाहती हैं सारा विष. तुम दर्द को पीती जाती हो हलाहल की तरह जो तुम्हारे पारदर्शी कंठ में जम-सा जाता है, नीली पहाड़ियों की तरह.
तुम्हारी आँखे नीलाभ्र हो जाती हैं और नाग चंपा से महकने लगते हैं खुश्क श्वेत होंठ. तुम दर्द के समंदर में तैरती हो किसी रंगीन मछली की तरह, जिस के लिए वर्जित है जल का आचमन.
मैं, तुम्हें अपनी आत्मा में संजोए, सींचता हूँ आँसुओं के गरम जल से. तुम मेरी गोद में सोई हो नन्ही बच्ची की तरह.
कितना साम्य है पृथ्वी में, मेरी माँ में और तुम में. स्त्रियों को परंपरा से मिलता है कमर का दर्द.
क्या ईश्वर ऐसे ही गढ़ता है स्त्रियों को!