भारत अहसानमंद है मुंबई पुलिस के असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर तुकाराम ओम्बले का

ASI Mumbai Police Tukaram Omble
Tribute to ASI Mumbai Police Tukaram Omble

2008 में हम लोग बैंक परीक्षा की तैयारी करते थे.

आज की तरह उस वक़्त न तो टीवी देखने की उतनी फुर्सत थी और न ही फेसबुक इन्टरनेट पर इतनी सक्रियता थी कि किसी समाचार या घटना के बारे में तुरंत पता चल जाये.

इसलिये प्रेश्याओं की भाषा में ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ भी हम लोगों को बड़ी देर बाद मालूम होती थी.

ऐसे में एक दिन सुबह-सुबह एक मित्र के घर उससे मिलने गया तो उसने बताया कि बीती रात मुंबई में छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, ओबेरॉय ट्राइडेंट होटल और नरीमन हाउस समेत कई और जगहों पर आतंकी हमला हुआ है और इन हमलों में हेमंत करकरे और मुंबई पुलिस के दो अधिकारियों विजय सालस्कर और अशोक कामते की मुठभेड़ में मौत हो गई है.

विजय सालस्कर और अशोक कामते का नाम तो मैंने पहले नहीं सुना था पर हेमंत करकरे का नाम मैं जानता था. उनका नाम जानने की वजह थी कि करकरे ही देश में चल रहे कथित ‘हिन्दू आतंकवाद’ को सामने लाने वाले थे.

मक्का मस्जिद, मालेगाँव, और अजमेर शरीफ ब्लास्ट के बहाने ‘हिन्दू आतंकवाद’ का जिन्न खड़ा कर आरएसएस और उसके बड़े नेताओं को लपेटने का जिस समय पूरा माहौल था उस समय इन घटनाओं की जांच कर रहे अधिकारी की इस तरफ हुई मौत ने उसी समय मुझे ये एहसास करा दिया था कि हो न हो, देश की बिकी हुई मीडिया, उर्दू अखबार और कथित सेकुलर राजनीतिक दल मक्का मस्जिद, मालेगाँव और अजमेर शरीफ में हुए आतंकी हमलों की तरह इसे भी संघ से जोड़ देंगे.

प्रेश्यायें तो उस वक़्त तुरंत खुल कर सामने नहीं आई पर मरहूम साहित्यकार और पाकिस्तान के मानस पुत्र कमलेश्वर के अज़ीज़ मित्र और उनके अनुसार गंगा-जमुनी तहजीब की सबसे बड़ी मिसाल अज़ीज़ बर्नी जल्दी ही, घटना के तुरंत बाद ही अपनी लिखी एक किताब ’26/11: RSS Conspiracy’ के साथ सामने आ गये.

करीब 250 पन्नों की ये मोटी किताब कम से कम तीन भाषाओँ उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी में निकाली गई जिसमें ये साबित करने की कोशिश की गई कि चूँकि हेमंत करकरे हिन्दू आतंकवाद का पर्दाफाश कर रहे थे इसलिये संघ और बीजेपी ने मिलकर मुंबई हमले की साजिश रची ताकि उनके द्वारा उजागर किया जा रहे हिन्दू आतंकवाद की बाद दब जाये.

मज़े की बात है कि जिस रोज़ मुंबई हमला हो रहा था उस रोज़ अज़ीज़ बर्नी पाकिस्तान में थे. इस कूड़ा किताब में उन्होंने नितिन गडकरी से लेकर सुदर्शन जी, मोहन भागवत, इन्द्रेश कुमार तक सबके चरित्र हनन की कोशिश की और अपने हिसाब से साबित कर दिया कि 26/11 का हमला संघ ने मोसाद के साथ मिलकर रचा.

इतना ही नहीं अज़ीज़ बर्नी ने तो ये भी लिख दिया कि 1993 से आज तक भारत में जितने भी आतंकी हमले हुए हैं, सबके पीछे आरएसएस और बीजेपी है और इसी आधार पर उन्होंने चुनाव आयोग से ये मांग भी कर दी कि बीजेपी की मान्यता खत्म की जाये.

अज़ीज़ बर्नी की किताब के विमोचन के लिये कई जगहों पर बड़े-बड़े कार्यक्रम किये गये. 6 दिसंबर, 2010 को दिल्ली में हुए ऐसे ही एक कार्यक्रम में दिग्विजय सिंह, महेश भट्ट तो आये ही साथ के इस्लाम के कट्टरपंथी जमातों के साथ उन फिरकों के मौलाना भी आये जिन्हें हम उदारवादी समझने की गलती करते हैं.

ऐसे ही कथित उदारवादी फिरके के एक उलेमा ने कहा कि अज़ीज़ बर्नी साहब अपनी किताब के जरिये जिस तरह से फासीवादी ताकतों को एक्सपोज़ कर रहे हैं और इस्लाम की खिदमत कर रहे हैं, इसी को तो जिहाद-बिल-कलम कहा गया है.

जिस दौरान कलम वाले ये जिहादी जिहाद कर रहे थे, उसी वक़्त विनायक जोशी नाम के एक संघ कार्यकर्ता ने नवी मुंबई की एक कोर्ट में अज़ीज़ बर्नी के खिलाफ मुकदमा कर दिया तो तुरंत बर्नी ने 28 जनवरी 2011 को फ़ैक्स के माध्यम से विनायक जोशी को भेजे अपने पत्र में माफी मांगते हुये आगे से इस तरह से नहीं लिखने का वादा करते हुये कोर्ट केस वापस लेने का अनुरोध किया.

‘कलम वाले जिहादी’ बर्नी ने अपने माफीनामे में आगे लिखा कि उनका इरादा किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं था और उनका इरादा भारत की सुरक्षा संगठनों / एजेंसियों अथवा देशभक्त संगठनो को निशाना बनाना भी नहीं था.

अर्थात जब कोर्ट का नोटिस मिला तो बर्नी के लिये कुफ्र का सरगना आरएसएस अब देशभक्त था. संघ मुकदमा वापस लेने के लिये तैयार नहीं हुआ तो नाक रगड़ते हुए बर्नी ने उर्दू अखबार ‘सहारा’ में दो कॉलम का माफीनामा प्रकाशित कर अपनी किताब के लिए खेद जताया और बिना शर्त संघ से माफी माँगी.

मुझे उस वक़्त एक कूड़ा किताब लिखने वाले अज़ीज़ बर्नी से अधिक तरस उस शिया मौलाना पर आ रहा था जिसने अज़ीज़ बर्नी को कलम वाला जिहादी बताया था. ये कैसा जिहाद जिसके लिये बाद में जिहादी को लगातार नाक रगड़नी पड़े और माफीनामा लिखना पड़े?

कसाब और उसके जैसे और आतंकियों द्वारा हाथ में कलावा बाँध कर आना और अज़ीज़ बर्नी की कूड़ा किताब, ये सब पूरी साज़िश थी कि मुम्बई पर हुए आतंकी हमले के बहाने संघ परिवार और भाजपा को खत्म कर दिया जाए पर विधाता हमेशा सत्य का साथ देता है. इसलिये आतंकियों में एक आमिर अजमल कसाब संयोग से ज़िंदा पकड़ा गया जिसके कारण एक बड़े असत्य प्रचार की हवा निकल गई.

कसाब अगर जिंदा नहीं पकड़ा जाता तो प्रेश्यायें और छद्म सेकुलर तो कब का संघ और बीजेपी को उस हमले और हेमंत करकरे की मौत का गुनाहगार घोषित कर चुके होते.

भारत अहसानमंद है मुंबई पुलिस के असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर तुकाराम ओम्बले का जिन्होंने अपना बलिदान देकर कसाब नाम के राक्षस को जिंदा पकड़ लिया था.

उन्होंने जब कसाब को पकड़ा था तब उनके पास केवल एक डंडा था. कसाब ने अपने आपको छुड़ाने के लिए AK-47 से तुकाराम के पेट में कई गोलियाँ मारी थी, पर खून से लथपथ तुकाराम ने कसाब को नहीं छोड़ा था.बाद में कसाब की मारी हुई गोली से उन्होंने प्राण त्याग दिए.

जिस स्थान पर कसाब पकड़ा गया था, वहां अब उस अमर बलिदानी की मूर्ति लगाई गई है और उनको मरणोपरांत अशोक चक्र से भी सम्मानित किया जा चुका है. पर क्या उस हुतात्मा के लिये हमारा इतना करना ही काफी है?

बस इतना सोचिये कि उस दिन अगर स्वर्गीय ओम्बले ने अपना बलिदान देकर कसाब को जिंदा नहीं पकड़ा होता तो आज क्या होता?

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