छोटे से कस्बे में पढ़ते हुए बचुवा पाण्डे ने खूब मेहनत की और दिल्ली के श्रेष्ठ विश्वविद्यालय में दाखिला मिल गया.
बचुवा पाण्डे ने समाज शास्त्र में आगे की पढाई चालू की. वहां के प्रोफेसर भारत में व्याप्त अमीर-गरीब, ऊँच-नीच के बारे में पढ़ाते थे, कैंप लगाते थे, प्रैक्टिकल दिखाते थे कि कैसे गरीब से साथ सो के उसको सशक्त किया जाता है.
क्रान्ति करने के पहले और गरीब संग सोने के बाद थक जाते थे तो गुरु जी थकान मिटाने के लिए 8 PM के बाद 8 PM खोल लेते थे और बच्चों को चिलम देते थे.
वहां बच्चा पांडेय को पहली सीख मिली कि क्रान्ति की थकान मिटाने के लिए 8 PM, गांजे का चोली दामन का साथ है.
क्रान्ति नहीं हो सकती अगर 8 PM को Bagpiper बजाते हुए Black Dog की सवारी करते हुए धुंवे के गुबार में गायब न हुवा जाए…
कई महीने क्रांति का ककहरा सीखने से बाद बचुवा पांडेय को घर जाना था… जिस दिन अपने कस्बे को जाने की टिकट कराए, उसी दिन से रात की नींद गायब हो गयी…
बड़े परेशान थे… लटका और चिंतित चेहरा देखकर गुरु जी ने पूछा तो बचुवा ने हाल-ए-दिल बताया….
गुरु जी ने कहा कि “तुम्हारे इलाके के ही हमारे कामरेड है जिन्होंने क्रान्ति सीखी, क्रांति की और अब एक विदेशी विश्वविद्याय में बढ़िया प्लेसमेंट पा गए हैं और वहीँ से क्रांति की लौ जलाये हुए हैं… तुम्हारी किस्मत है कि वो आजकल आये हुए हैं… ये लो पता, कल मिल लेना… तुम्हारी सारी समस्या का हल निकल जाएगा…”
कुछ दिनों के लिए वापस तशरीफ़ लाए इन कामरेड का नाम था प्रो. रामभरोसे मिश्रा.
अगले दिन बचुवा पाण्डे नियत समय पर कामरेड प्रो. रामभरोसे मिश्रा की चेलईती में पहुँच गए…
बचुवा पाण्डे ने बताया कि “हम गाँव जा रहे हैं 25 दिन के लिए, सब ठीक था लेकिन अब्दुलवा और फलाकांत दोनों साले साथ लग गए हैं.. कह रहे हैं कि एक हफ्ता तुम्हारे गाँव में गुजार के आगे अपने यहाँ जाएँगे..”
बचुवा ने बताया कि “अब समस्या ये हैं कि हम हैं क्रन्तिकारी लेकिन हमारे बड़के बबुवा (बड़े पिताजी) है लट्ठधारी… हमारे पिताजी है बड़के बबुवा के पोंछ… बड़के बबुवा, मियां और चमार साथ लाने पर पहले तो हमको लठियांएगे… गंगाजल डाल के नहलाएंगे… इन दोनों को बाहर पेड़ के नीचे चट्टी पर बैठा के मियां और चमराही गिलास में चाय पानी फेंकवा देंगे…”
बचुवा पाण्डेय रोए, “हमारी क्रांति का तो चीरहरण हो जाएगा… वैसे कोई चांस तो नहीं है लेकिन अगर मुंह से गलती से क्रांति और बराबरी की बात निकल गयी तो बड़के बबुवा कटहल के पेड़ में बाँध के लठियाएंगे वो अलग… अकेले जाते तो कोई बात नहीं थी लेकिन ई दोनों साथ लग गए हैं गले में फंसी हड्डी की तरह, न उगले जा रहे हैं और निगले जा रहे हैं.”
कामरेड प्रो. रामभरोसे मिश्र ने सब सुनके एक Benson & Hedges सुलगाया और शान्तिपूर्वक बताया कि “तुम्हारी और हमारी कहानी एक है. हमको भी हमारे कामरेड गुरु चिंताहरण शुक्ला ने ऐसे ही फंसे हुए मौके पर जो मन्त्र दिया था, मैं वो आज तुमको देता हूँ. हमारे साथ भी असलम और बोंकू लग गए थे कि चलेंगे तुम्हारे गाँव … तो लो कंठस्थ कर लो गुरु ज्ञान…”
प्रो. मिश्र ने सीख दी, “याद रखना कि हमेशा तड़के सुबह या देर रात को पहुँचने वाली ट्रेन से नहीं जाना है. उससे जाओ जो 10 बजे सुबह के बाद और 7 बजे शाम से पहले पहुँचे और बाजार खुले हों.”
गुरु ज्ञान आगे बढ़ा, “हमारे जमाने में बट्टा और पतरी (मिट्टी के कुल्हड़ और पत्ते की प्लेट) चलती थी, अब के समय में थरमोकोल की प्लेट और प्लास्टिक की गिलास चलती है. उतरते ही बाजार से खरीद लेना और इन दोनों लटकी हुई मजबूरियों को बोलना कि माँ को बर्तन न मांजना पड़े इसलिए मैं इन यूज़ एंड थ्रो का इस्तेमाल करता हूँ.”
प्रोफेसर के अमृत वाणी गूंजती रही, “in दोनों से कहना, मैं पितृ सत्ता को नहीं मानता इसलिए उनसे विद्रोह करके उनके खरीदे बर्तनों में खाना नहीं खाता हूँ … मेरे साथियों मैं तुमसे इस विरोध की क्रांति में साथ चाहता हूँ कि तुम लोग भी मेरे साथ ही इसमे भोजन पानी करोगे .. मैं अपने पिता और बड़के बबुवा को बता देना चाहता हूँ कि साथी जुड़ रहे हैं और समाज में क्रांति फैल रही है .. फिर वो दोनों सीना फूल के साथ हो लेंगे.”
प्रो. मिश्र ने आगे बताया, “तुम क्रान्ति को आगे बढ़ाते हुए अपने साथियों को बता देना कि मैं अपने पिता की पूँजीवादी मानसिकता का विरोध करता हूँ इसलिए मैं उनके खरीदे पूंजीवादी की फैक्ट्री में बने तख़्त, गद्दे और तकिये का बहिष्कार करते हुए आम के पेड़ के नीचे चटाई पर पुवाल बिछा के सोऊंगा… फिर वो दोनों भी ताल ठोंक के तैयार हो जाएँगे.”
प्रो. की आश्वस्त करने वाली आवाज़ गूंजी, “गाँव पहुँच के ऐसा ही करना. पिताजी जो बड़के बबुवा के पोंछ है वो कुछ न बोलेंगे…. बड़के बबुआ खाली कुनमुना के रह जाएंगे. माँ तो खैर क्या बोलेगी… बढ़िया बढ़िया खाना बाहर सप्लाई करने में व्यस्त हो जाएगी. जो दोनों तुम्हारे साथ गए हैं एक हफ्ते के लिए, देख लेना दो दिन में ढेर हो लेंगे. उनको अपने घर के गद्दे वाले बिस्तर की याद आ जाएगी और खुद जबरदस्ती विदा हो लेंगे.”
बचुवा के सामने ये सारी दृश्यावली खींचने के बाद प्रो. रामभरोसे मिश्र ने समापन किया, “उनके जाने के बाद बड़के बबुआ कालर से खींच के तुमको गंगाजल मिले पानी से नहला के अंदर ले लेंगे… याद रखना, साथियों के साथ पेड़ के नीचे पत्तल में खाना खाने की और चटाई पे पुवाल बिछा के सोने की फोटो ले लेना… क्रान्ति की फाइल में लगाने के काम आएगी.”
आज प्रो. रामभरोसे मिश्र रिटायर हो गए हैं… वसंत कुञ्ज के फ्लैट से क्रांति करते हैं… प्रो. बचुवा पाण्डे भी दूसरे चमचमाते देश में पोजीशन पा गए हैं…
अभी पिछले हफ्ते ही अपने कस्बे में ठीक 11 बजे सुबह पहुंचे… अंतिम रिपोर्ट मिलने तक लाला धनीराम की दूकान से पत्तल और गिलास खरीदते हुए दिखाई दिए थे… बड़के बबुवा नहीं रहे लेकिन जाते-जाते अपनी आत्मा अपने पोंछ में घुसेड़ गए हैं.