हमने ‘वैज्ञानिक’ ग्रेगोरियन कैलेंडर के लिए अपने ‘अंधविश्वासी’ पंचांग धर दिए ताक पर

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“यू नो हमारा सोफिया कान्वेंट पुराने कब्रिस्तान के पास था, वहां पर घोस्ट आते थे. बट सिस्टर्स होली वाटर छिड़कती थीं इसलिए वो घोस्ट्स किसी को परेशान नहीं कर पाते थे.” मेरे साथ पार्टी में बैठी एक लड़की सबको बता रही थी.

सेंट एंजेला सोफ़िया.. शहर का सबसे हाईफाई और क्लासिक माना जाने वाला स्कूल. मुझे अफ़सोस हुआ. अपन तो पिछड़े ही रह गए! ना कभी घोस्ट दिखा, ना होली वाटर छिड़का गया. डेविल, घोस्ट और ब्लैक स्पिरिट्स सिखाकर वह कान्वेंट आधुनिक शिक्षा दे रहा था जबकि हम विद्यामंदिर में योग, ध्यान और वैदिक गणित सीखकर अंधविश्वासी बन गए.

यह अफ़सोस तब और टीस मारने लगा जब पता चला कि वेटिकन ने 2 भारतीय मिशनरियों को ‘सेंट’ की उपाधि दी है. सेंट बनना है तो ‘चमत्कार’ करके दिखाने होते हैं. तो दिख गए ‘चमत्कार’ और गदगद हो गया मीडिया ! अहा… क्या घनघोर वैज्ञानिकता !!!!

उधर हमारी ‘अंधविश्वासी’ शिक्षा मंत्री जी ज्योतिष से भेंट कर बवाल मचा आईं. अरे भई ज्योतिष के पास क्यों गईं? टैरो रीडर के पास जातीं तो मॉडर्निटी में 4 चांद और जड़ा आती !

अब क्या है ना… अपन भारतीयों के पूर्वज तो ठहरे किसान! उनको कार्ड खींचने जैसे ‘वैज्ञानिक’ तरीके अपनाकर रिलेशनशिप स्टेटस जैसे ‘इम्पोर्टेन्ट’ पॉइंट्स थोड़ी ना जानने थे?

उन्हें चिंता थी… मानसून कब आएगा? धूप कब खिलेगी? फसल कब बोएं, कब काटें? पिछड़े लोग, पिछड़ी समस्याएँ… यू नो !

तो इसीलिए कुछ लोग… जिन्हें ज्योतिषी कहा गया, वे ज्योतिपुंजों : तारे, नक्षत्र और ग्रहों के स्थिति देखकर आने वाली खगोलीय घटनाओं और मौसम का सटीक अनुमान लगाते थे. और इस तरह वो ‘अंधविश्वासी’ पूर्वज ज्योतिषी 5000 पंचांग बना गए. प्रत्येक अक्षांश-देशांतर के हिसाब से अलग-अलग! बावले थे! एक-एक पल का हिसाब रख दिन बदलते थे ताकि पंचांग पृथ्वी के घूर्णन-परिक्रमण के साथ बराबर चलता रहे.

हमारे ‘आधुनिक’ बुद्धिजीवी इसकी व्याख्या करें तो वो आपको बताएँगे-

“प्राचीन भारत के लोग इतने अंधविश्वासी थे कि वे डरते थे कि कहीं नक्षत्रों की चाल के हिसाब में गड़बड़ी से नक्षत्र नाराज़ ना हो जाएँ. इसी अन्धविश्वास के चलते वे घंटे-मिनट की बजाय एक-एक क्षण का हिसाब रखते थे.”

खैर, देर आयद , दुरुस्त आयद!

तो हमने भी ‘वैज्ञानिक’ ग्रेगोरियन कैलेंडर के लिए अपने ‘अंधविश्वासी’ पंचांग ताक पर धर दिए हैं.

अब हमें क्या फर्क पड़ता है अगर ग्रेगोरियन कैलेंडर पृथ्वी के परिक्रमण काल से मेल नहीं खाता? क्या हुआ जो बेचारा मानसून भी ‘श्रावण-भाद्रपद’ वाला पंचाग देखकर ही बरसने को आता है और हमारे आधुनिक कृषि विज्ञानी ‘जून से सितम्बर’ के चक्कर में फसलें बर्बाद कर बैठते हैं?

पल-पल की गिनती करने के लिए हम कोई अंधविश्वासी थोड़ी ना हैं !

भई, भाटा बुद्धि को कितनी आसानी होती है ग्रेगोरियन तारीखें गिनने में… रात को 12 बजे तारीखें बदलो और दोस्त को ‘हैप्पी बड्डे टू यू’ करके सो जाओ.
होय हजारों टन फसल बर्बाद, हमारी बला से!

वैज्ञानिक सोच मुबारक हो!

– तनया प्रफुल्ल गड़करी

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