क्या प्रमाण है कि मनुस्मृति में कर्म आधारित वर्णव्यवस्था है जन्म आधारित नहीं

varna-vyavastha

सम्पूर्ण मनुस्मृति में महाराज मनु ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जन्म से होते हैं अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि का पुत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि ही हो सकता है. मनु ने निर्धारित कर्मो को करने वाले को ही उस-उस वर्ण का माना है. ब्राह्मण किस प्रकार बनता है उसका स्पष्ट निर्देश मनु ने निम्न श्लोक में दिया है –

स्वाध्यायेन व्रतेर्होमैस्त्रैविधिनेज्यया सुतै: . महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनु: .. ( २ – ८ )

अर्थात विद्याओं के पढ़ने से, ब्रह्मचर्य, सत्यभाषण आदि व्रतों के पालन से, विभिन्न अवसरों पर अग्निहोत्र करने से, वेदों के पढ़ने से, पक्षेष्टि आदि अनुष्ठान करने से, धर्मानुसार संतानोत्पत्ति से, प्रतिदिन पंचमहायज्ञ करने से, अग्निष्टोम आदि यज्ञ विशेष करने से मनुष्य का शरीर ब्राह्मण का बनता है. इसका अभिप्राय यह है कि इसके बिना मनुष्य ब्राह्मण नहीं बनता.

इसी प्रकार मनुस्मृति के सप्तम अध्याय में राजा के पुत्र को कहीं राजा नहीं कहा अपितु उपनयनकृत क्षत्रियवर्णस्थ को राजा होना कहा है ( ७ – २ ).

ऐसे ही वैश्य भी कृतसंस्कार व्यक्ति होता है उसके बिना नहीं ( ९ – ३२६, १० – १ ). यदि मनु को वंशानुगत रूप से या जन्म से वर्ण अभीष्ट होते तो वे ऐसा वर्णन नहीं करते बल्कि यह कह देते कि ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण होता है, क्षत्रिय का क्षत्रिय, वैश्य का वैश्य और शूद्र का शूद्र होता है.

अतः यह स्पष्ट है कि मनु जन्म आधारित महत्ताभाव को कितना उपेक्षणीय समझते थे इसका ज्ञान उस श्लोक से होता है जहाँ भोजनार्थ अपने कुल गोत्र का कथन करने वाले को मनु ने वान्ताशी अर्थात वमन करके खाने वाला जैसे निन्दित विशेषण से अभिहित किया है –

न भोजनार्थं स्वे विप्रः कुलगोत्रे निवेदयेत . भोजनार्थं हि ते शंसन वान्ताशी उच्यते बुधे .. ( ३ – १०९ )
अर्थात कोई द्विज भोजन प्राप्त करने के लिए अपने कुल और गोत्र का परिचय न दे. भोजन के लिए कुल और गोत्र का कथन करने वाला वान्ताशी अर्थात वमन किये को खाने वाला माना जाता है.

वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी. एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यध्ददुत्तर्म .. ( २ – १३६ )
अर्थात वित्त=धनी होना, बंधू=बांधव होना, आयु में अधिकता, श्रेष्ठ कर्म, और विद्वता ये पांच सम्मान के मानदण्ड हैं . इनमें बाद वाला अधिक सम्मान का पात्र है . अर्थात सर्वाधिक सम्माननीय विद्वान होता है फिर क्रमशः श्रेष्ठ कर्म करने वाला, आयु में अधिक बन्धु और धनवान होते हैं . यह प्रमाण पर्याप्त है जो वर्ण व्यवस्था में जन्म के महत्व को पूर्णतः नकार देता है .

यदि जन्म का महत्व होता तो यह कहा जाता कि जन्मना ब्राह्मण प्रथम सम्माननीय है; किन्तु ऐसा नहीं है . मनु की वर्ण व्यवस्था में कर्म का ही महत्व है जन्म का नहीं . इसको सिद्ध करने वाला उनका महत्वपूर्ण विधान यह भी है कि कोई बालक यदि निर्धारित आयु सीमा तक उपनयन संस्कार नहीं कराता है और किसी वर्ण की शिक्षा दीक्षा प्राप्त नहीं करता है तो वह आर्यों ( हिन्दुओं ) के वर्णों से बहिष्कृत हो जाता है. जैसे आज की व्यवस्था में निर्धारित आयु तक शिक्षण संस्थानों में प्रवेश न लेने पर उन्हें प्रवेश नहीं मिलता.

यदि मनु जन्म से वर्ण मानते तो इस प्रतिबन्धात्मक विधान का उल्लेख ही नहीं करते जो जिस वर्ण में पैदा हो गया आजीवन वही रहता. न तो उसका वर्ण निर्धारण होता, न वर्ण से पतन होता और न ही वर्ण परिवर्तन होता. इससे सिद्ध है कि मनु व्यवस्था में जन्म का आधार मुख्य नहीं है.

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