कई साल पहले भारत में मेरे एक मित्र ने बहुत समझदारी की एक बात समझाई थी कि राजनीति में नेता एक अलग जाति होती है और कार्यकर्ता एक अलग जाति होती है.
उन्होंने समझाया कि अगर आप एक बार कार्यकर्ता जाति में गिन लिए गए तो कोई आपको कभी नेता स्वीकार नहीं करेगा.
मित्र की सलाह थी कि डॉक्टर साहब, आप चुनाव में यह जो पर्चे बांटना और झंडे टांगना करते है, इसे बंद कर दीजिए.
चलिए, आपको धूमधाम से, माला-वाला पहना कर, 25-50 लोगों के साथ, प्रेस बुलाकर, फोटो खिंचवाकर, अर्जुन मुंडा या रघुबर दास जी की उपस्थिति में बाकायदे पार्टी ज्वाइन करवाते हैं… तब ही आप नेता गिने जायेंगे, नहीं तो जिंदगी भर कार्यकर्ता जाति में बने रहेंगे.
बात दुनियादारी की थी, प्रैक्टिकल थी और सच थी. मेरे काम की नहीं थी, फिर भी मैंने किसी कोने में रख ली.
एक और बात…
आज गिनता हूँ, जनता कितने तरह की होती है? राजनीतिक रूप से थोड़ी बहुत जागरूक जनता भी तीन तरह की होती है.
एक, जो आइडियोलॉजी के मानने वाले आदर्शवादी होते हैं. सुबह या शाम, सही या गलत, उत्तर या दक्खिन ये अपनी आइडियोलॉजी से चिपके रहेंगे.
इन्हें जिस बस में सीट मिल गयी वहीँ बैठे रहेंगे…चाहे वह बस कहीं ले जाये या नहीं ले जाये, चाहे खड़ी रहे चाहे एक ही जगह गोल गोल चक्कर लगाती रहे…ये अपनी सीट नहीं छोड़ते हैं.
बड़ी मुश्किल से एक आइडियोलॉजी बनाई है, उसे छोड़ कैसे दें? फिर से सोचना, समझना, जानना पड़ेगा… अब इतनी जहमत कौन उठाये.
इनकी परवाह कोई नहीं करता. कोई नेता या पार्टी नहीं. ये कहीं नहीं जाने वाले. ये काम के लोग हैं, पर कई बार बोझ भी बन जाते हैं…
इन्हें थोड़ा बहुत चाय पानी पहुंचाते रहें, बताते रहो कि हम पहुँचने ही वाले हैं… क्रांति होने ही वाली है…कि ये सीट से न उठें… सू सू करने भी नहीं.
दूसरे वाले टाइप के लोग चतुर सयाने होते हैं. इन्हें काम से मतलब होता है. इन्हें पता होता है कि इन्हें क्या चाहिए, कहाँ जाना है…
और जो इन्हें वहां ले जाये, वह चीज दिलाये… चुपचाप उसके साथ चले जाते हैं. इन्हें अपने हित मालूम होते हैं…
हाँ, यह अंतर हो सकता है कि हित की परिभाषा क्या है? व्यक्तिगत हित, जातिगत या सामूहिक हित, राष्ट्र हित…
ये संख्या में कम होते हैं, पर राजनीति की दिशा यही तय करते हैं. इन्हें खुश करने की मजबूरी सबकी होती है, पर इन्हें खुश करना आसान नहीं होता.
ये हार्ड बार्गेनर होते हैं… इन पर बहुत मेहनत पड़ती है, इन्हें कोई पसंद नहीं करता… पर ये सबकी मजबूरी होते हैं.
पर जो तीसरा वर्ग है वह सबसे बड़ा है… इन्हें मीडिया जो समझा देता है, वे समझ लेते हैं.
ये अपने-अपने तरह से बहुत जानकार होते हैं. बहुत पढ़े-लिखे भी होते हैं… डॉक्टरेट, पीएचडी भी मिल जायेंगे… इनमे बहुत से अंग्रेजी ही बोलते हैं..
इनका रात का खाना प्राइम टाइम देखे बिना गले से नहीं उतरता… पाखाना सुबह का अखबार पढ़े बिना नहीं उतरता.
अखबार में लिखी हुई या टीवी पर बोली हुई बातें इनके लिए ब्रह्म-वाक्य होती हैं. इन्हें जो सिद्धांत, इतिहास, राजनीति, दर्शन समझा दिया जाये, फटाफट समझ लेते हैं.
ये बौद्धिक भेड़ें हैं. इन्हें झुण्ड में हांकना होता है. इन्हें झुण्ड से बिछड़ना बर्दाश्त नहीं होता. यही राजनीति की असली फसल हैं… इसी फसल को काटने में सभी लगे होते हैं.
सबसे आसानी से इन्हें ही बरगलाया जाता है… और इसी फसल को काटने की सारी मारामारी है, जिसका नाम राजनीति है…