दान बैंकिंग : दान की सनातन परंपरा

Daan Bank

RBI के पूर्व गवर्नर रघुराम-राजन ने ‘इस्लामिक बैंकिग’ की फ़ाइल शुरू की थी. वह बड़ी चर्चा में है. अब अपनी मांग भी ‘हिन्दू बैंकिंग’ की होगी. सनातन धर्म के लगभग सभी धर्म-ग्रंथों में ‘दान, प्रथा का वर्णन है. दान की भूरि-भूरि प्रशंसा है. हिन्दू-अर्थ-व्यवस्था का सबसे बड़ा कारक तत्व था.

कुल बारह तरह के दान बताये गए है जो सीधे जीवन और समाज के सर्वांगीण विकास का काम करते हैं. बिना दान के व्यक्ति की मुक्ति नहीं है.

दान-लेना और देना जीवन का अनिवार्य कर्म था…. आवश्यकता की पूर्ति का सबसे सशक्त और मानवीय अर्थ-शास्त्र था दान. दानी राजा शिवि,,.. कर्ण… जैसे सम्पूर्ण त्याग और सेवा के हजारों-हजार उदाहरण है.

यहां तक कि रावण और कंस जैसे विलेन भी दान के लिए तैयार दीखते हैं. कभी राज्य दान देता था तो कभी जनता! कभी राणा तो कभी भामाशाह.

कम्युनिस्ट इतिहासकारों और लेखकों ने एक सोची-समझी योजना के अनुसार इस महान ‘शब्द, को केवल एक जाति (ब्राम्हण) के ऊपर चिपका कर ‘हेय’ रूप में बदल दिया. असल में इस किसी भी ‘मानवीय स्वरुप की बैंकिग’ से उनका ‘वर्ग-संघर्ष’  कराने का उद्देश्य पूरा नहीं होता था. वह पहली ही नजर में समझ गये कि ‘दान’ की प्रणाली, इस समाज को आर्थिक सुरक्षा की गारंटी है. जब तक यह है तब तक सनातन समाज में खूनी क्रान्ति नहीं कराई जा सकती.

करीब सौ-साल पहले के बने स्कूल, धर्माशालाएं, सड़कें, पानी की व्यवस्था, मंदिर, सेवा-आश्रम, पेड़-लगाना, चिकित्सालय, सब कुछ बनियों के दान से ही तो चलता था. गहराई से सोचिये तो दिखेगा सनातन व्यवस्था को बचाने में किसी ने भी कम त्याग नहीं किया है. किसी भी जाति ने किसी दूसरी जाति से कम बलिदान नहीं किया है.

हिन्दू धर्म में यदि सामान्य समाज के पास दान का सहज सिद्धांत न रहा होता तो इस्लामिक शासन के आठ सौ साल शायद ही कट पाते….

जब 80 प्रतिशत तक लगान(टैक्स) वसूलने(लूटने) के बावजूद विधर्मी शासक केवल ऐयाशी करते थे… अपने बड़े-बड़े ऐय्याश-गाह बनाने के अलावा उन्होंने इन सालों में कुछ भी नही किया.

बस केवल शासकीय इतिहासकारों ने झूठे सेकुलरिज्म की खातिर किसी भाँति कोर्स की किताबों में बना रखा है… वरना वे शत्रु या लुटेरे ही थे.
उन वर्षो में दान से ही सड़कें, डाक-व्यवस्था, पञ्चायत व्यवस्था चलती रही.

यह आठ-सौ वर्ष आतंक के साल… खैर!

हम बनियों में लाख बुराई निकाले आज भी हजारों बनिये अपने बही-खातों में ‘धर्मादा’ निकालते हैं. वह भी पूरे चार प्रतिशत. पूरा गीता-प्रेस उसी से चलता रहा.
और आप अठन्नी में रामायण-महाभारत पढ़ते रहे.. 2 पैसे के ‘कल्याण पत्रिका’ ने इन सौ सालों में अकेले.. संस्कृति और धर्म की लड़ाई लड़ी.

दसवीं शती से पहले राज्य में ‘दान-विभाग’ मुख्य-विभागों में होता था…. आज के वित्त-मंत्री की तरह दान-विभाग का गवर्नर नियुक्त किया जाता था… आचार्य-चाणक्य भी मगध राज्य के दान-गवर्नर थे…

राज्य के ‘तत्त्वों’  में यह ‘छठा तत्त्व’ है. अवधारणात्मक रूप में कल्याण-कारी राज्य ‘दान’ के बगैर नहीं फलित हो सकता.

जब’ ईसाई बैंकिग’ चल रही है और इस्लामिक बैंकिग की योजना है ही तो फिर हिंदू-बैंकिग ने क्या बिगाड़ा है??
… दस हजार साल से भी पुराना इतिहास है ‘सनातन बैंकिंग’ का.

‘दान-बैंकिग’ पर एक सोच विकसित करनी चाहिए. उसकी थ्योरी पर शोध होना चाहिए, अधिक पैसे वाले लोग ‘दान’  दें जरूरत वाले एप्लिकेशन देकर या सरकारें खुद पता लगाकर यह दान वितरित करें.

इसमें केवल दान लेने की व्यवस्था है. वह भी सभी वर्गों के लिए. सनातन धर्म में जीवन और राज्य का अनिवार्य कर्म है. फिर तो हम जबर्दस्ती दान लेंगे.

‘ब्याज तो छोड़िये उसमें वापस करने का झंझट ही नहीं है. ब्याज देने का दिमागी-प्रेशर नहीं रहेगा तो परफार्मेंस बेहतर होगा. साथ ही समाज और राष्ट्र के प्रति गहन कृतज्ञता भी.

‘दान बैकिंग’  का कांसेप्ट बस चल निकलने दीजिये.

”उन्हें इस्लामिक बैंक खोलने की अनुमति दी जाये, किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए……….. वह अरब-पाकिस्तान, आदि 83 इस्लामिक देशों से लाकर ब्याजमुक्त कर्ज ले-दे सकें.. इससे देश का भला होगा.

इससे देश की जनता और नागरिकों को कई विकल्प मिलेंगे… विकास होगा.

जब तब पैसे आने-पाने का विकल्प भी मिलेगा.

नोट-बंदी का सबसे बड़ा सफल उपयोग दान-बैंकिग के माध्यम से हो सकता था. ..और हम भी ‘दान बैंकिंग’ की तैयारी में जुटे.

एक ऐसा पैसा जो लेकर वापस ही न करना हो…. जब सक्षम हो तब दान की शक्ल में वापस हो.

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