IISF : RSS के आनुषंगिक संगठन ‘विज्ञान भारती’ का सराहनीय कदम

IISF

7 से 11 दिसंबर 2016 तक नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला (National Physical Laboratory) में इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल (IISF) का आयोजन किया जा रहा है.

विज्ञान का यह ‘पर्व’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषंगिक संगठन ‘विज्ञान भारती’ और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग भारत सरकार के संयुक्त प्रयासों का प्रतिफल है.

राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला (NPL) का नाम ज्यादातर लोग नहीं जानते. यह नाम सबसे पहले स्कूल के बच्चे NCERT की भौतिकी की पुस्तक में पढ़ते हैं जब उन्हें ‘mass’ यानि द्रव्यमान की परिभाषा पढ़ाई जाती है.

हमारे देश में किलो ग्राम का जो स्टैण्डर्ड है उसका मूल प्रतिमान NPL में रखा हुआ है. उसी प्रोटोटाइप के बराबर बटखरा आज भी सब्जी बेचने वाला रखता है भले ही जनरल स्टोर की दुकानों पर आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक मशीनें आ गयी हैं.

इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल 2016 दूसरा आयोजन है, पहला 2015 में हुआ था. एक अनोखी चीज यह है कि IISF2016 में इंटरनेशनल साइंस फ़िल्म फेस्टिवल भी होगा.

हमने इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल देखे है जहाँ बॉलीवुड के अदाकार धूम मचाते हैं परन्तु IISF सम्भवतः पहला आयोजन है जहाँ इंटरनेशनल साइंस फ़िल्म फेस्टिवल होगा.

स्कूल के बच्चों से लेकर युवा शोधार्थियों तक के लिए IISF में बहुत कुछ रोचक और ज्ञानवर्द्धक होने वाला है. पूरी जानकारी विज्ञान भारती या IISF की वेबसाइट पर प्राप्त करें.

यदि आप दिल्ली में हों तो IISF में अवश्य जाएँ. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और विज्ञान भारती ऐसे आयोजन के लिए बधाई और धन्यवाद के पात्र हैं.

कुछ ही दिनों पूर्व विज्ञान भारती संगठन के सेक्रेटरी जनरल श्री ए जयकुमार जी ने एक साक्षात्कार में कहा कि वो दिन दूर नहीं जब भारत को वैज्ञानिक ‘आयात’ करने पड़ेंगे.

उनकी यह चिंता जायज़ है. कई वर्ष पहले प्रो० सी एन आर राव (भारत रत्न से सम्मानित) ने साइंस रिपोर्टर मैगज़ीन को दिए साक्षात्कार में ऐसी ही बात कही थी. उन्होंने भारत के युवाओं के मन में वैज्ञानिक शोध के प्रति घटती हुई रुचि को ‘alarming’ कहा था.

कुछ लोगों का मानना है कि भारत को कैपिटलिस्ट इकॉनमी बनाने से या ढेर सारा पैसा शोध में निवेश करने भर से देश में विज्ञान का स्तर ऊँचा हो जायेगा.

परन्तु यह सतही सच्चाई है. विज्ञान पढ़ने समझने और कुछ नया खोज निकालने की पहली शर्त है ‘जिज्ञासु’ प्रवृत्ति. पैसा सेकेंडरी फैक्टर है.

विज्ञान पहले एक ‘आर्ट’ है. वह कला जो प्रकृति को देख कर प्रश्न करती है फिर भौतिक संसाधनों से उसका उत्तर खोजती है. लोक सुविधा के लिए कुछ अविष्कार कर लेना, प्रौद्योगिकी का कमर्शियल इस्तेमाल और औद्योगिक विकास ये सब अंत में आता है.

एक बार NDTV प्राइम टाइम पर रवीश कुमार ने सांसद बैजयन्त जय पांडा को बुलाया था. बहस इस विषय पर हो रही थी कि भविष्य में रोबॉटिक्स का प्रसार इतनी तेज़ी से होगा कि सब काम रोबॉट करने लगेंगे और आम जनमानस बेरोजगार हो जायेगा.

दरअसल जय पांडा अमेरिका या जापान गए थे जहाँ उन्होंने रोबॉटिक्स ऑटोमेशन की उन्नत तकनीक देखी और कुछ आंकड़े जुटाए जिनके अनुसार आने वाले समय में रोबॉटिक्स की इतनी महिमा हो जायेगी कि विश्व में बेरोजगारी का खतरा उत्पन्न हो जायेगा.

इस पर उन्होंने ब्लॉग लिखा और रवीश बाबू ने उन्हें बुला कर घण्टा भर चर्चा की. मुझे यह नहीं समझ आया कि इससे रवीश बाबू क्या सिद्ध करना चाहते थे. जिस देश में बच्चों के अंदर जिज्ञासा ही नहीं है क्या वो एक दिन सुबह उठेंगे और हज़ारों रोबॉट बना लेंगे जो फैक्टरियों में काम करने लग जाएंगे?

इस तरह के आंकड़े प्रति वर्ष कई संस्थाओं से प्रकाशित होते हैं मगर आंकड़े कभी इतिहास में स्थापित नहीं होते. विचार स्थापित होते हैं दिशा दिखाते हैं.

नवोन्मेष प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञ एलेक रॉस ने अपनी पुस्तक Industries of the Future में भारत के शहरों को भविष्य में नवोन्मेष यानि innovation का हब बताया है.

साथ ही एक गम्भीर बात भी लिखी है कि भविष्य में भारत और लैटिन अमेरिका जैसे देशों के विज्ञान के शोधार्थी अपने घरों से दूर संयुक्त राज्य अमरीका में नए अवसर तलाशेंगे. सरकारें किस तरह अपने यहाँ विज्ञान प्रौद्योगिकी शोध पर लगाम लगा कर रखती हैं इस पर उन्होंने रूस का उदाहरण दिया है जहाँ स्टालिन के राज में ट्रॉफिम लाइसेंको नामक वैज्ञानिक हुआ करता था.

उसने जीन रिसर्च को रूस के लिए बुरा बताते हुए ‘बुर्जुआ छद्म विज्ञान’ की संज्ञा दी थी. परिणामस्वरूप स्कूल कॉलेज के पाठ्यक्रम से यह विषय ही हटा दिया गया था. इस मानसिकता के कारण एथनिक रूसी जीनोम का सीक्वेंस 2010 में जाकर बना वह भी अमरीकी उपकरणों की सहायता से.

मेरे विचार से रवीश बाबू को भी एलेक रॉस की पुस्तक पढ़नी चाहिये क्योंकि मुझे याद है भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर प्राइम टाइम में चर्चा के दौरान उनके हाथ में संजय चक्रवर्ती की ‘प्राइस ऑफ लैंड’ हुआ करती थी.

बहरहाल, खुशखबरी यह भी है कि भारत अब CERN का एसोसिएट सदस्य बनने जा रहा है. गत वर्ष गुरुत्व तरंगों के संसूचन के लिए LIGO India प्रोजेक्ट के निर्माण की सूचना के बाद यह महत्वपूर्ण कदम है. हमने CERN के लिए साहा इंस्टिट्यूट फॉर न्यूक्लिअर फिज़िक्स (SINP) से कई मैग्नेटिक उपकरण बना कर भेजे थे.

हरीश चन्द्र अनुसंधान संस्थान झूसी इलाहाबाद में Regional Centre for Accelerator-based Particle Physics (RECAPP) स्थित है. इसके अलावा Variable Energy Cyclotron Centre (VECC) कोलकाता में स्थित है. कुछ और भी संस्थान हैं जो कण भौतिकी (particle physics) में शोध करते हैं. इन संस्थानों में प्रवेश के लिए Joint Entrance Screening Test (JEST) होता है.

नवंबर का महीना है शायद फॉर्म आ गया होगा. साहा इंस्टिट्यूट, VECC, HRI इत्यादि में प्रवेश लेकर वहाँ पढ़ने के उपरांत भौतिकी के डॉक्टोरल ग्रेजुएट मेधावी छात्र विश्व की सबसे बड़ी प्रयोगशाला CERN में कार्य करने का अवसर प्राप्त कर सकेंगे. भारत को CERN की एसोसिएट मेम्बरशिप मिलने का यह अर्थ है. मैंने इस मुद्दे को अपने Science Diplomacy वाले लेख में दो वर्ष पहले लिखा था जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मार्क ज़करबर्ग से मिलने गए थे.

लेकिन रवीश बाबू ये सब नहीं समझेंगे. जाने दीजिये. आप लोग इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल में अवश्य जाइये. हज़ारों की संख्या में विद्यार्थी आयेंगे. खूब सारा विज्ञान होगा.

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