‘अजी नाम में क्या रखा है?’, एक मशहूर डायलॉग है, आपने सुना होगा.
अगर नाम में कुछ नहीं रखा तो सोचिये कि कश्मीरी विस्थापितों को ‘कश्मीरी पंडित’ क्यों कहते हैं?
बड़े आराम से इस एक नाम से लगता है कि हिन्दुओं की सिर्फ दो प्रतिशत आबादी पीड़ित है.
इस एक विस्थापित को पंडित कर देने पर आप 23 लाख को 3 लाख कहकर बच निकलते हैं.
नाम ना लेना, या नाम ना देना, जिम्मेदारी से बचने का आसान तरीका होता है.
राजा-महाराजाओं के दौर में आपने रखैलों के बारे में सुना होगा. उनसे सम्बन्ध तो होते थे, संबंधों का नाम नहीं होता था.
उनके बच्चे भी होते थे… जिनके पास ‘वो किसके हैं’, बस ये एक ‘नाम’ नहीं होता था.
विस्थापित को विस्थापित के बदले पंडित कह देना भी उसी गाली जैसा है. जिम्मेदारी से बचा ले जाता है.
उन लाखों परिवारों की मुसीबत पत्थरबाजी बंद होने से कम जरूर हुई होगी.
जिन विस्थापितों के कैंप पर पांच सौ का नोट देकर पत्थर चलवाए जाते थे, वो नोट बंदी से बंद हैं. अख़बारों में मीडिया पर ये खबर आपने पढ़ी होगी.
लोकतंत्र में सरकार जनता की होती है. दूर दिल्ली में बैठे किसी राजा की अकेले की नहीं, वो कश्मीर के विस्थापित हिन्दू आपकी और हमारी भी जिम्मेदारी हैं.
ऊपर दिख रही तस्वीर में वैसा ही एक कैंप है. इसमें सामने सिक्ख गुरुओं की जो तस्वीर दिख रही है. ये बताती है कि विस्थापित सिर्फ पंडित भी नहीं है.
इस बार उस पर पत्थर इसलिए नहीं चला है क्योंकि किराये के इस्लामी पत्थरबाजों और कश्मीरी विस्थापितों के बीच में आप कतारों में खड़े थे.
नहीं, वो नोट बदलने की कतार नहीं है! वो कतार, हमारे ही भाइयों को विदेशी नोटों के पत्थर से बचाने की भी कतार है.
भारत की जनता को, शांतिपूर्ण कतार से, कट्टरपंथी इस्लाम के, पत्थरबाजों को रोकने की बधाई!! पहली जीत मुबारक हो!!