लगभग बेहोशी की हालत में एक बड़े पत्रकार को उनका फोटोग्राफर एक नामी गिरामी प्राइवेट अस्पताल में भर्ती कराने गया. डॉ हैरान ! ये बड़े क्रन्तिकारी पत्रकार थे भाई ! क्या हुआ? डॉ ने पत्तरकार की नब्ज, दिल और पुतलियों का मुआयना करते हुए पूछा.
फोटोग्राफर – सर हम 9 तारीख से रोज साथ हैं. दिन भर घूमते रहते हैं. कभी इस बैंक की लाइन पर तो कभी उस एटीएम की लाइन पर. कभी मंडी में तो कभी साहित्यकार के घर. कभी किसी पार्टी के ऑफिस तो कभी किसी नेता की प्रेस कॉन्फ्रेंस! कभी ….
अब तक डॉ बीपी चेक कर चुका था. स्टेथोस्कोप लगा चुका था.
ओह्हो ! अब रुकोगे भी या इनकी जान लोगे?
बताइये सर! एनीथिंग सीरियस?
नहीं सब नॉर्मल है लेकिन क्या कोई ऐसी घटना घटी है जिससे इन्हें सदमा पहुंच हो?
नो सर !
लेकिन लक्षण तो ऐसे ही हैं.
सर ! हो सकता है कि ज्यादा थकान हो गयी हो. जब से नोटबन्दी हुई है, हम दोनों इसी मुद्दे पर कवरेज में लगे हैं.
अरे भाई साहब ! डॉ मैं हूँ या आप?
सॉरी सर!
आप दोनों के काम में जमीन आसमान का फर्क है. आई नो …. आप कृपया बाहर जाएँ. हम कुछ टेस्ट करते हैं.
डॉ ने मनोचिकित्सक को बुलाया. साइकेट्रिस्ट को समझते देर न लगी. वो ऐसे न जाने कितने केस प्रतिदिन हैंडल करता है. उसने पत्रकार को झिंझोड़ना शुरू किया. पत्रकार बुदबुदा रहा था …. दलित, शहीद, आजादी, पुरुस्कार ….. इससे आगे कुछ समझ नही आ रहा था.
डॉ ने पत्रकार को माइल्ड सेडेटिव मेडिसिन (हल्की नींद की दवा) दी ताकि हारमोनियम की धौंकनी की तरह चलती सांसों की रफ्तार सामान्य हो सके. बीपी नियंत्रित हो सके.
एक एनिमेशन एक्सपर्ट को बुलाया गया. मनोचिकित्सक ने उसको कुछ समझाया और चला गया. पत्रकार को डॉ की निगरानी में छोड़ दिया गया.
चार घण्टे बाद पत्रकार जगा. डॉ ने चेकअप किया एवं मनोचिकित्सक को खबर की.
एनीमेशन स्पेशलिस्ट को भी बुलाया गया. प्रोजेक्टर लगाकर पत्रकार को 5 – 5 मिनट के कार्टून वाले वीडियो क्लिप दिखाये गये.
पत्रकार एकदम खुश …. सब कुछ सामान्य !
दरअसल हुआ ये कि 1000 और 500 के नोट बन्द हुए 11 दिन बीत गए. लेकिन चौबीस घण्टे घूमते हुए पागलपन की हद तक पहुंच चुके पत्रकार को केवल बैंक और एटीएम के सामने लगी लाइन ही दिखीं.
न तो दलितों पर दबंगई की खबर मिली, न ही कोई ऐसा मुर्गा मिला जो किराये पर दलित का रोल निभा सके. न कोई “जंग रहेगी” जैसे नारे लगाता मिला. न कोई मोदी राज से आजादी के नारे लगाने को तैयार हो रहा था ….. इधर नौकरी पर बन आई थी, टी आर पी का बैंड बज रहा था, फोन पर बॉस गालियां बक रहा था और कहीं कोई ऐसी घटना नहीं मिल रही थी जो ऑक्सीजन दे सके.
और तो और, देश भर के नेता सरकार के खिलाफ भाषणबाजी और मार्च कर रहे थे लेकिन पंक्तियों में खड़े लोग अपने में मस्त थे. कोई खुश कोई उदास …. लेकिन कोई ऐसी घटना नहीं घट रही थी जिसे ब्रेकिंग न्यूज़ बनाया जा सके.
प्राइम टाइम पिछले 11 दिन से सुनसान था. वह रोज न्यूज़ बना रहा था कि लाइन में लगने से 10 मरे, 20 मरे, 30 मरे ….. 50 पार हो गए लेकिन कोई इस असहिष्णुता के खिलाफ नहीं बोल रहा था. कई साहित्यकारों से मिल लिया लेकिन पता लगा अब उनके पास वापिस करने के लिए कोई अवार्ड नही बचा था.
हालाँकि उस पत्रकार ने ऐसा बहुत कुछ देखा जो वो लोगों को जागरूक बनाने के लिए दिखा सकता था, राष्ट्र निर्माण में योगदान कर सकता था लेकिन वो उसका एजेंडा नहीं था, उससे उसको मिलने वाले विज्ञापन बन्द होने का खतरा था, इसलिए उसने रिकॉर्ड नहीं किया कि किस तरह लाइन में खड़े होकर लोग पैसा कमा रहे हैं, किस तरह पैसे लेकर अपने खातों को प्रयोग करने दे रहे हैं, किस तरह बैंक, पेट्रोल पंप, रेलवे काउंटर, सरकारी अस्पतालों के स्टाफ ब्लैक मनी को वाइट मनी बना रहे हैं, किस तरह 100 और उससे छोटे नोटों की अवैध जमाखोरी करके कृत्रिम मुद्रा संकट पैदा किया जा रहा है.
वो ऐसी न्यूज़ कवर करने से हमेशा बचता है जिसमे कश्मीर घाटी शांत दिखे, रेव पार्टियां करने वाले फार्म हाउस सुनसान दीखें, ड्रग्स/शराब की बिक्री में कमी का डाटा भी उसके लिए कोई मायने नही रखता, उसे कन्या भ्रूण हत्याओं और दहेज की घटनाओं में कमी में कोई दिलचस्पी नहीं.
वो समझ रहा है कि विमुद्रीकरण चुनाव सुधार की ओर एक महत्वपूर्ण कदम है, वह देख रहा है कि जैसे जैसे जहां जहां जो जरूरत महसूस हो रही है वहां सरकार त्वरित निर्णय ले रही है और व्यवस्था सुचारू रखने में लगी है.
लेकिन उसे प्रॉपर्टी/ज्वेलरी के गिरते दामों से क्या लेना देना साहेब !! वो तो आपकी कुर्सी गिरती देखने की चाह में खुद गिर गया था. वो तो कहिये कि भला हो साथ वाले फोटोग्राफर का जिसने समय रहते अस्पताल पहुंच दिया, वरना ऐसी परिस्थितियों में न जाने कितने बौद्धिक दिवालिये आत्महत्या तक कर लेते हैं.
– प्रकाश वीर शर्मा