बदल जाओ नहीं तो ख़त्म हो जाओगे!

एक नामी-गिरामी बड़े पत्रकार की बात बताता हूं. कभी लोग-बाग़ उनके तर्क और तथ्यों को आखिरी निष्कर्ष मानते थे… वह अपने में ही प्रमाण माने जाते थे.

जब-तब आम को इमली साबित करते थे. दुनिया मान भी लेती थी.

यह तब की बात है जब मास फिगर को आम जनता बहुत बड़ी ‘तोप’ समझती थी. लिखा-छपा हुआ यानी पत्थर की लकीर. टीवी पर आ गए तो प्रकट देवता.

ज़माना बदल गया. आ गया सोशल मीडिया का ज़माना.

अब सब ही बारह हाथ के पैदा होने लगे… वह भी बिना तनख्वाह और एनजीओगीरी के.

आज सरेआम छोटे-छोटे बच्चे भी उतार कर रख देते है.

वह बहुत बिलबिलाते रहे… अब डिप्रेशन में हैं.

मैं ऐसे ही अनायास घूमते-घामते मेडिकल कालेज गया था… फेमस डॉक्टर मेरे मित्र हैं… उनके यहां इन्हें देखा तो समझा किसी को दिखाने लाये होंगे… पर पता चला खुद ही…

उनके जाने के बाद डॉक्टर से बात करने लगा. उन्होंने जो बताया, सुन कर मैं भौचक्का रह गया.

‘उनके मन-मस्तिष्क में मोदी घुस गया है… दिन भर गरियाते रहते है… तरह-तरह के कुतर्क…

आज कल के तो लड़के… माने नहीं… पहले तो फेसबुक पर फिर मुंह पर ही गरियाने लगे!

अचानक मोदिया जीत गया… और रोज-रोज जनहित वाले काम भी करता है.

ई गुरु जी मोदिया को गरियाते-गरियाते, कब आस-पास वालों को गरियाने लगे इन्हें पता ही न चला.

बदले में भी वही पाने लगे.

बड़े-बड़े सरकारी पदों पर बैठे उनके चारों बेटे और दामाद परेशान होकर मेरे पास ले आये…

खुद इन्हें तो अभी पता ही नहीं है कि इनका अवसाद का इलाज चल रहा है… अगर न बदले तो कुछ दिन में पगला जायेंगे.’

ये सब बातें हमारे डॉक्टर दोस्त ने कहीं.

तथ्य और प्रमाण तो छोड़िए, वह तो आज के लड़कों के पास कम्प्यूटर और नेट सामने होता है… तुरन्त हाजिर…

नये लड़के तर्कों और भाषा-शैली के मामलो में बड़े-बड़ों का कान काट रहे… लड़के इन्हें गँवारू जंगल का रेड़ी बोलने लगे हैं.

वह भी मुंह पर! ठीक सामने.

जिन जंगलों में पेड़ नही होते उनमे रेड़, को ही वृक्ष कहा जाता था.

अब मठ सूने पड़ गए हैं. मठाधीश अकेले.

लिबरल के चोगे का वाम पक्ष तबाही की कगार पर है.

उन स्वघोषित बड़े जी के पास एक ही उपाय होता है बेचारे कमेंट डिलीट करते हैं. अनफ्रैंड करते हैं और ब्लॉक करते हैं.

यही रवीश से लेकर देश भर के सारे सो-कॉल्ड बुद्धिजीवी इमेज में रंगे लोग करते हैं.

आप खुद देख लीजिए चरित्र-विचार और सोच से वे कितने लोकतांत्रिक है.

कहा जा सकता है कि लोकमत निर्माण की औकात तो छोड़िए अब वे घिन्ने (एक तरह का बदबूदार गोबड़ौरा) में बदल चुके हैं.

इन सो-कॉल्ड लिबरलों, शेखुलरों के पास यही कट्टरता-वादी उपाय ही बचते है. सारी दुनिया में अब नीले सियारो का रंग उतर रहा है.

पहले रूस, आस्ट्रेलिया, फिर भारत और तत्पश्चात अमेरिका में लेफ्ट-लिबरल-ढोंगी सेकुलरों का वैचारिक गर्भपात होने के बाद अब फ्रांस भी कतार में खड़ा है. वहाँ भी कट्टर-पंथी जमात के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गए हैं.

चीन से भी कुछ वैसी ही खबर है. चीन ने अपने देश के अधिकाँश हिस्सों को दुनिया की नजर से छुपा दिया है.

जरा चीन को गुलाम बनाये ‘लौह आवरण’ तो हटने दीजिए… जल्द ही वहां से भी मीठी खबरें आनी शुरू हो जाएंगी.

वे गूगल या फेसबुक को आम जन में क्यों नहीं जाने देते. भारत के कम्यूनिस्टों, चीन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए आंदोलन तो करो.

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