हो सकता है आपने “आनंद” फिल्म देखी हो. काफी चर्चित सी इस फिल्म में किरदार कम थे, इसलिए पूरी संभावना है कि इसके किरदार याद भी होंगे.
इस फिल्म में जब शुरुआत में ही राजेश खन्ना यानि फिल्म का आनंद, एक अस्पताल में आकर भर्ती होता है तो वहां ललिता पवार नर्स होती है. एक तो ललिता पवार ऐसे ही मंथरा होने के लिए कई लोगों को याद होगी. ऊपर से इस फिल्म का रोल भी कुछ ख़ास भला सा नहीं होता, इसलिए याद ही होगी.
लेकिन फिल्मों के विलन-वैम्प जैसा उसके प्रति मन में घृणा वाला भाव नहीं उपजता. क्यों ?
फिल्म में बाद में उसके चरित्र का दूसरा रूप भी दिखाया गया था इसलिए? नहीं साहब! सबने अपने घर में किसी ना किसी को बीमार होते देखा ही होता है इसलिए वो गलत नहीं लगती.
ये मरीज होने का पहला ही लक्षण होता है शायद, वो दवा से परहेज करेगा. ऊपर से जिस से परहेज करना हो वो तो चाहिए ही चाहिए. जो कभी फ्रिज से पानी नहीं लेता हो, उसे भी सर्दी-जुकाम होते ही चिल्ड पानी चाहिए! जिसे मिठाइयाँ कम पसंद रही हों, उसे पता चल जाए कि वो डायबिटीक है तो उसे मौका पाते ही गुलाब-जामुन चट कर जाना होगा. कैसे होता है पता नहीं लेकिन होता है.
इसको ठीक उल्टा कर के आप दवा खिलाने की कोशिश में भी देख सकते हैं. कफ़ सिरप और पेरासिटामोल खाने में सिर्फ बच्चे नखरे नहीं करते. सब, सब, सब, लगभग सब बीमार होते ही, नौटंकी करना शुरू कर देते हैं.
अगर ऐसे यकीन ना हो तो अभी शादियों का मौसम है, किसी पार्टी में जिसे ज्यादा हो गई हो उसे नींबू या दही खिला देने की कोशिश कर के देखिये. अगर वैसा कोई ना मिले तो किसी सिगरेट के आदि को जरा सलाद का टमाटर खिला दीजिये. आप लाख कोशिश कर लें, सिगरेट पीने वाला कच्चा टमाटर नहीं खायेगा, ना सुरा का शौक़ीन कुछ भी खट्टा छुएगा.
बतौर समाज इसी दवा से परहेज वाले उल्टे बर्ताव को देखना हो तो ये आपको मोहल्ले के मार्केट में दिख सकता है. किसी जमाने में भारत का सबसे बड़ा फ्रेंचाइजी बिज़नस होता था पी.सी.ओ.. पब्लिक फोन बूथ फ्रेंचाइजी मॉडल पर चलता था और उस दौर में फ़ोन कनेक्शन बड़ी मुश्किल से मिलता था.
तो जो एक बार ले के बैठ गए उन्हें लगता था कि बस अब तो कई पुश्तों के लिए धंदा-रोजगार सेट हो गया. जब माहौल बदलने लगा तो टेलिकॉम क्षेत्र के ज्यादातर मार्केटिंग वालों ने इन्हें बदलाव से चेताने की कोशिश की थी. सबको कहा गया कि अब मोबाइल रिचार्ज, मोबाइल बेचने की तरफ स्विच करना शुरू कर दो.
मगर बरसों से धंधा देखते आ रहे भारत के सेठजी भला सलाह सुनते तो हेठी ना हो जाती? खैर ना मानने का नतीजा वो अब समझ चुके हैं.
बैंकिंग भी ऐसी ही चीज़ है जो भारत के व्यवसायी वर्ग को अपनाने की सलाह दी जाती है. ये सलाह देते ही उनकी दर्जन भर समस्याएँ आपको सुनने को मिलेंगी.
आपको बताया जाएगा कैसे सेल्स टैक्स वाले दुखी करते हैं. परमिट लेना रोज़ का हिसाब अकाउंट में रखना कितना मुश्किल काम है, भाई उनके बस का तो नहीं.
किसी आदमी को इस काम के लिए रखना भी उनके लिए संभव नहीं है. क्योंकि घर तो उनका मुश्किल से चलता है ना, तनख्वाह कैसे देंगे एक आदमी की? क्या कहा सब मिलके मार्केट का एक मुनीम! अरे नहीं फिर हमारे धंधे का सबको पता चल जाएगा जी ! मार्केट वाले जलन खोर हैं जी!
ऑनलाइन रिटेल के आने का असर किताबों, कपड़ों और जूतों की दुकान चलाने वाले अच्छी तरह महसूस कर चुके हैं. एडमिशन के टाइम यानि पुराने दौर के जनवरी-मार्च और अब जुलाई वगैरह में ऐसी दुकान वालों की ठसक ही अलग होती थी.
अगर सिलेबस की सारी किताबें उपलब्ध करवा दे तो वो आपपर एहसान ही कर रहा होता था. तीस से ऊपर की उम्र के हर आदमी को किताबें लेने जाना याद ही होगा.
अब उन्हीं व्यापारियों को ऑनलाइन का असर भी महसूस हो गया होगा. लेकिन बदलने को तैयार हैं क्या? ना ना बिलकुल नहीं, सेठजी ने बरसों धंधा चलाया है, कल के लौंडों की सलाह सुनेंगे!
जिन्हें असर का अंदाजा नहीं भी था उन्हें भी इस महीने असर महसूस होगा. ना चाहो सेठजी तो भी होगा! क्यों होगा? क्योंकि बिग बाजार, विशाल मेगामार्ट जैसे सुपर स्टोर अब दिल्ली-मुंबई की बात नहीं रही. वो टियर टू के पटना-इंदौर ही नहीं टियर थ्री के बक्सर, दरभंगा जैसी जगहों पे भी पहुँच गया है.
आठ नवम्बर को इन्होंने रात तक धंधा किया क्योंकि इनका पैसा तो व्हाइट का था, टैक्स पेड! आप कर नहीं पाए. इनमें सब मिलता भी है, सब, सब, सब, आटा भी, मसाले भी, चीनी भी, कपड़े भी, आलू भी, कपड़े भी.
तो लोगों ने अपने घर में पड़े पांच सौ-हज़ार के नोटों से ढेर सारी खरीदारी तो कर ली. अब मोहल्ले के बनिए का महीने भर का धंधा?
बीस का नोट लेकर कोई सुबह नमक लेने क्यों आएगा जब वो महीने भर का कोटा 8 तारिख को ले आया? ये धंधे पर चोट आपको महीने भर ही नहीं लम्बे टाइम फील होने वाली है.
लम्बे टाइम क्यों? क्योंकि उसके पास 2000 का नोट है, आपका ग्राहक अब खुल्ले लेने बड़ी खरीदारी करेगा, वो एक बार मॉल का रास्ता देख चुका है. अगर एक दो बार और गया तो वो “बुढ़िया के मरने का नहीं, यम ने गाँव देख लिया का अफ़सोस” वाली कहावत भी याद कर लीजियेगा.
बुजुर्गों की कहावत है और बुजुर्ग उतने बेवक़ूफ़ भी नहीं होते थे ना? आपका ही प्रिय डायलॉग है, कई बार मार्केटिंग वालों को आप सुनाते तो हैं सेठजी! अपनी बारी में भूलने लगे?
क्या किया जा सकता है? चलिए अब सुधर जाइए. जब हमला रायफल से हो तो लड़ने के लिए डंडा नहीं निकालते. आपको बराबरी के ही हथियार इस्तेमाल करने होंगे.
कार्ड स्वैप करने की मशीन बैंक से मिलती है, फ़ौरन उसके लिए अप्लाई कर डालिए. अगर एक बार आपका ग्राहक इन बड़ी दुकानों की तरफ जाने लगा तो आपकी दुकान का रास्ता भूलते उसे देर नहीं लगने वाली.
सबने अपना नकद बैंक में डाला है, उसके कार्ड से आप पैसे ले सकते हैं. चेक के भरोसे बैठने, या फिर कम भरोसे पे उधारी देने का झंझट भी नहीं रहेगा.
तरीका बदलिए, कूढ़मगज बनके अपना नुकसान मत कीजिये. धंधा चलाना है कि ग्राहक और सरकार से लड़ने में टाइम खर्च करना है? काम क्या है आपका?
हालात बदलें तो तरीके फ़ौरन बदले जाते हैं. जाड़ा आते ही स्वेटर-कम्बल सूखने छत पे कैसे डाला गया? नकद का काम बंद हुआ है तो फौरन कार्ड स्वैप मशीन के जुगाड़ में जुटिये.
क्या कहा? शाम में? कल? चलिए ठीक है सेठ जी, फिर मिलते हैं. आपको नूतन चलती नहीं लगता है, ललिता पवार से ही मिलिएगा.