कहते है ब्रह्मा के ह्रदय का उल्लास ही गीत बन कर गूंजा था और उनके मुख से अकस्मात निकल आया था गायत्री छंद. जरा गौर कीजिये तो आप पायेंगे कि उस ब्रह्माण्ड, जिसको ईश्वर ने रचा, में सर्वत्र लय है. ताल है. संगीत है. सब कुछ कितना अनुशासित कितना लयबद्ध और कितना संगीतमय.
ब्रह्माण्ड के हर एक कण की अपनी एक लय है और अपना एक राग है. संगीत वस्तुतः विपरीत स्वरों का एक मधुर योग है. अनुकूल और प्रतिकूल की यही लय मिलकर रचती है जीवन का राग और इसमें जो हमें प्रिय और सुखद लगता है वो नाद हो जाता है और जो अप्रिय और दुखद लगता है वो कोलाहल बन जाता है.
शब्द ध्वनि है. ध्वनि नाद है. नाद ब्रह्म है और ब्रह्म हमारा हमारा अपना अंतस है. पूरे ब्रह्माण्ड में नाद-ब्रह्म या कॉस्मिक संगीत की अनुगूंज है.
ब्रह्माण्ड एक जीवंत अद्वैत है. यहाँ सब कुछ एक दूसरे से जुडा हुआ है. पर्यावरण विज्ञान भी यह मानता है कि सृष्टि की हर चीज़ अभिन्न है. अलग अलग बिखरे हुए स्वरों जैसी और यह सब मिलकर एक संगीत रचती है.
भारतीय परंपरा में ध्यान और योग की अनेक धाराएं हमें इस नाद-ब्रह्म (कॉस्मिक संगीत) से जोड़ने के मार्ग दिखाती है. ऋग्वेद में ही यह कहा गया है कि “ यदि तुम संगीत होकर ईश्वर को पुकारोगे तो वह निश्चित ही प्रकट होगा और अपने नेह से तुम्हे भर देगा “.
योगीराज कृष्ण कहते हैं “न मैं बैकुंठ में रहता हूँ और न योगियों के ह्रदय में. मैं रहता हूँ संकीर्तन और गायन में डूबे प्रेम से सरोबार अपने भक्तों के ह्रदय में.” जीवन सृष्टि का बीज है. लय और ताल के सामंजस्य से यह ॐ जैसा शाश्वत मन्त्र बन जाता है और प्रणव नाद बन कर गा उठता है “असतो माँ सद्गमय, तमसो माँ ज्योतिर्गमय ……….
शिवसूत्र में नाद-ब्रह्म (कॉस्मिक-संगीत) का विस्तार से उल्लेख है. शिवसूत्र कहता है तार वाले वाद्यों की ध्वनि सुनो. स्वरों का मेरुदंड पकड़ो. संगीत स्वरों की भी रीढ़ होती है और यह रीढ़ होती है – संगीत का केंद्रीय स्वर जिसके चारो ओर अन्य स्वर घूमते है.
शिवसूत्र के अनुसार अन्य स्वर आते-जाते रहते है, लेकिन केंद्रीय स्वर सतत प्रवाहमान रहता है. वह नाद हो जाता है. ब्रह्म का आनंद जानने वाला हो जाता है. यह तकनीकी नहीं , बल्कि अभ्यास है. साधना है. ध्यान जैसी एकनिष्ठ साधना!
महान गणितज्ञ पैथोगोरस ने भी कहा है “ संगीत आत्मा की उन्नति का सबसे अच्छा साधन है“. उपनिषदों में ब्रह्म को रस कहा गया है. जहाँ रस है वहां ब्रह्म है और रस हमारे अंतस में चित्त को भर देता है अनायास संगीत (उद्गीथ) से. उपनिषदों ने कहा है कि ज्ञान की समझ के लिए ज्ञान आवश्यक होता है लेकिन संगीत के बोध के लिए बहरापन भी बाधक नहीं है.
सामवेद और मंत्र विज्ञान कहता है ॐ हो जाओ. साँसों के साथ ॐ को बहने दो. जब जब ॐ का उच्चारण करो, तब तब ओमकार हो जाओ. अपने भीतर भर लो इसे. अपने भीतर बहने दो. ऐसे की तन-मन सब ॐ से भर जाए. भीग जाए.
यह ध्वनि इतनी प्रेम पगी है कि जीवन को साक्षात् प्रेम स्वरुप बना देती है बस कुछ शब्दों का उलटफेर और जीवन खुद महामंत्र-सा सुगन्धित हो जाता है. नाच उठता है चैतन्य के साथ साथ – जीवन का यही आनंद है सरस्वती की वीणा, महादेव का डमरू, नारायण का शंख, कृष्ण की बांसुरी, उपनिषदों का उद्गीथ, ऋषियों का अनहद, बुद्ध की सम्बोधि और महावीर का कैवल्य.
शिव संहार के देव है , लेकिन वो भी कहाँ बचे हैं संगीत की झूम से. उनका डमरू जब बजता है तो फूट पड़ते है चौदह महेश्वर सूत्र. धरती के होठों पर आकर ठहर जाती है सात स्वरों की अविरल रागिनी.
शिव का संगीत निराला है. शिव खुद भी निराले हैं, क्योकि भोले हैं, सरल हैं. साधु हैं. अपना कुछ भी नहीं है. खुद सबके हैं. ऐसा साधुता भरा भाव जब जीवन में उतर जाए तो जीवन हो जाता है अनहद की वीणा.
यही प्रगाढ़ था कान्हा की बंसी में भी. सारी धरती को जोड़ सकने में सक्षम एक बांस का टुकड़ा जो बजा नहीं कि नदिया अपना प्रवाह भूल जाती थी. सिंह, गाय, मोर, सर्प, पपीहे, कोयल, हिरन….. सब समीप सिमट आते थे.
कहा जाता है कि बुद्ध और महावीर की वाणी में भी ऐसा ही संगीत बसता था. सबको खींच लेने वाला.
कुछ पश्चिमी ज्ञान से अनुप्राणित और सनातन का बोध न रखने वाले व्यक्तियों को देखता हूँ ये अनर्गल प्रलाप करते हुए कि सनातन के देवी-देवताओं के हाथ व शरीर शस्त्रों से सुसज्जित रहते हैं और उनको हिंसात्मक वृति का द्योतक बताते हैं.
ऐसे सज्जनों को बताना चाहता हूँ कि मन को स्थिर रखते हुए देखे उन देवी-देवताओं के हाथ में शस्त्र ही नहीं वाद्य-यंत्र भी होते हैं और शास्त्र भी.
आप जीवन में कोलाहल और आतंक को देखने के ही आदि रहोगे तो आपको शस्त्र ही दिखाई देंगे, वाद्य यंत्र और शास्त्र नहीं और आप जीवन के मधुर संगीत से हमेशा हमेशा के लिए वंचित हो जाओगे.
फिलहाल अन्तरिक्ष, ब्रह्माण्ड और हमारे सौरमंडल को स्मरण करते हुए बच्चन साहब की कुछ पंक्तियों से अपने शब्दों को विराम दूंगा.
कहते हैं तारे गाते हैं !
सन्नाटा वसुधा पर छाया,
नभ में हमने कान लगाया,
फिर भी अगणित कंठो का
यह राग नहीं हम सुन पाते हैं
कहते हैं तारे गाते हैं!
– गोविंदा चौहान