प्रधानमंत्री मोदीजी की माँ हीराबेन ने बैंक की लाइन में लगकर अपने रुपए बदलवाए. मोदीजी की माँ के लिए बैंक वाले खुद घर आकर रुपए बदलकर जा सकते थे पर मोदी जी का राजनीतिक इतिहास गवाह रहा है कि उनके उच्च पदों पर बैठे होने के बावजूद कभी उनके परिवार या परिचितों को जरा भी विशेष सहूलियत हासिल नहीं हुई.
उनके इन नैतिक आदर्शों को यदि निष्ठुरता कहा जाएगा तो राजनैतिक शुचिता की बात ही बेमानी हो जाएगी.
जिस देश के सड़कछाप पार्षदों के दूर के रिश्तेदार भी उनके नाम की धौंस जमाकर अपने काम निकाल लेते हों उस देश के प्रधानमंत्री की बुज़ुर्ग माँ यदि सामान्य लोगों की तरह लाइन में लगकर नोट बदलवाती हैं तो राजनीति के जानवर उन्हें निष्ठुर और खराब बेटे की संज्ञा देते हैं.
ये राजनीतिक जानवर अगर आज़ादी के समय रहे होते तो क्रांतिकारियों को भी कपूत, गैरजिम्मेदार, निष्ठुर और न जाने क्या क्या कहकर गरियाते.
क्रांतिकारियों के खज़ाने की जिम्मेदारी चन्द्रशेखर आज़ाद के पास थी. एक दिन आज़ाद से किसी ने कहा कि आंदोलन का पैसा तुम्हारे पास रहता है और तुम्हारे माँ-बाप गांव में भूखे मरते हैं, उनका कुछ प्रबन्ध क्यों नहीं करते तब आज़ाद बोले कि माँ बाप और क्रांतिकारियों के भी हैं, उनके घर भी खाने को नहीं है.
यह धन आज़ादी का है घर पालने के लिए नहीं, क्या गांववाले उनके दो समय की रोटी का इंतज़ाम भी नहीं कर सकते? अगर नहीं कर सकते तो मैं गांव जाकर दो गोली उनके सीने में उतारकर इंतज़ाम कर दूंगा.
केजरीवाल जैसे मानसिक कुष्ठ रोगियों के लिए आज़ाद से बड़ा कपूत शायद ही दुनिया में होगा चाहे जगरानी देवी ऐसा सपूत पैदा कर स्वर्ग पा गईं हों.
आज देश को आज़ादी मिले 70 साल हो चुके हैं और देश के युवाओं को प्रधानमंत्री समझाते हैं कि अब समय देश के लिए मरने का नहीं देश के लिए जीने का समय है, यह वे नहीं कह रहे, उनका जीवन कह रहा है.
क्या नरेन्द्र की सिर्फ एक ही माँ है? देश की करोड़ों महिलाओं को उन्होंने माँ माना है, सबके लिए वह लाइन में नहीं लग सकता क्योंकि वो सबसे बड़ी माँ भारत माता के उद्धार की लाइन में लगा हुआ है.
– मुदित मित्तल