एक बहुत प्रसिद्ध कहावत है कि जब बाढ़ आती है, तो खुद की जान बचाने के लिए सांप, बिच्छुओं के साथ तमाम आपसी विरोधी और जहरीले जानवर एक डाल पर जाकर बैठ जाते हैं. और उस वक्त चौतरफा पानी का तेज बहाव उनकी दुश्मनी को बिल्कुल नगण्य कर देता है.
बात सही भी है जब जान पर आती है, तो कुछ और भला दिखाई भी कैसे सकता है. अब पानी के बहाव और पेड़ की डाल को छोड़कर मौजूदा वक्त में देश की राजनीति पर जरा नजर डालिए…
मायावती को देश में आर्थिक आपातकाल नजर आ रहा है. अखिलेश यादव कह रहे हैं, कि कालाधन सामने आने से देश की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा जाएगी. ममता बैनर्जी और सीताराम येचुरी को सरकार का यह फैसला तुगलकी फरमान नजर आ रहा है.
अरविंद केजरीवाल के साथ राहुल गांधी की माने तो करंसी चैंज के पीछे एक बहुत बड़ा घोटाला किया है मोदी सरकार ने. हिंदुस्तान ने तमाम राजनीतिक ध्रुवों की ऐसी जमावट शायद ही पहले कभी देखी हो.
ममता और येचुरी आज एक दूसरे का मुंह नहीं तूप रहे. माया और मुलायम एक साथ मिलकर बस यह साबित करने की जुगत में है, कि करंसी बदलकर न जाने कितना बड़ा पाप कर दिया मोदी सरकार ने.
इसके अलावा तमाम अन्य सियासी दलों की कसरतों को उठाकर देख लीजिए, उनके दुश्मन सिर्फ और सिर्फ पीएम नरेन्द्र मोदी ही नजर आ रहे हैं.
कितना अजीब है, कि एक बहुत बड़े बदलाव के मुहाने पर खड़ा हिंदुस्तान विपक्षी खेमे के एक ऐसे आंदोलन को भी महसूस कर रहा है. जहां अनेक तरह की राजनीतिक पृष्ठभूमि और विचारधारा से जुड़े सियासी दल एक कतार में आकर खड़े हो गए हैं.
और उनके निशाने पर यदि कुछ है तो सरकार की वो मुहिम, जिसे भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ एक ईमानदार कोशिश करार दिया जा सकता है. ऐसे में समझ में नहीं आता, कि यह तमाम राजनीतिक दल सिर्फ मोदी का विरोध कर रहे हैं या फिर इसकी आड़ में उनके निशाने सरकार की वो कोशिश है.
लेकिन अब जरा दूसरे पक्ष पर भी गौर कीजिए, लोकतंत्र में विपक्ष को जनभावनाओं की आवाज करार दिया जाता रहा है. और जब यह पूरा का पूरा विपक्षी खेमा एकसुर होकर अपनी बात रखे, तो इस बात अंदाजा लगाया जा सकता है, कि उनकी बात में जनभावनाओं का किस हद तक समावेश होगा.
लेकिन हैरत अचरज की बात देखिए, कि वो दल जिन्हें 2014 के आम चुनाव में देश के 70 फीसदी वोट मिले थे, आज उनके साथ देश की सिर्फ 14 फीसदी ही जनता खड़ी है (नोटबंदी को लेकर किए गए त्वरित सर्वे के मुताबिक)… और इस बात का अंदाजा हर कोई लगा सकता है, कि वो 14 फीसदी लोग कौन होंगे.
बहरहाल एक बात साफ है, कि जनता की भलाई की आड़ में खुद राजनीतिक दल अपना भला करवाना चाहता है. और यदि उनका कुछ मकसद रह गया है, तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उस मुहिम का मिलकर सामना करना जिसे भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत कोशिश माना जा रहा है.
इस बीच बाढ़ से घिरे सांप, बिच्छुओं की तरह तमाम विपक्षी दलों की मनोभावना को भी आसानी से समझा जा सकता है. जिसे पानी के तेज बहाव सरीखे नरेन्द्र मोदी की नीति ने एक साथ आने पर मजबूर कर दिया है.
– हेमंत चतुर्वेदी
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