एक बात होती है – गरीब से कहो कि अमीर ने तुम्हें गरीब रखा है, और तुम्हें गरीब रखने से ही वो अमीर रह सकता है तो यह बात झट से उसके गले उतरती है.
लकड़ी से लकड़ी जलाते जाओ तो समाज व्यवस्था की चिता जलने में कोई कसर नहीं रहती.
समाज में जो संवेदनशील (sensitive) व्यक्ति होते हैं, वे भी इस बात से प्रभावित होते हैं.
अगर अमीर नहीं हैं, तो अपराध भावना -GUILT FEELING- से उत्पीडित हो कर पाप क्षालन के लिए कुछ करने की सोचते हैं.
सेंसिटिव मनुष्य को वामपंथी नारे अच्छे लगते हैं. सेंसिबल हो जाता है तो असलियत समझ आती है.
ऐसा नहीं कि वामपंथी सेंसिबल नहीं होते. जो होते हैं वे बहुत ही डेंजरस होते हैं. ऐसी जगहों पर गिरोह बनाकर बैठ जाते हैं जहाँ वे आनेवाली पीढ़ियों पर असर कर सके.
सबसे अच्छे उदहारण है कॉलेज और विद्यापीठ. आर्ट्स और इकोनॉमिक्स इनके गढ़ होते हैं.
अध्यापन के लिए भाषा पर प्रभुत्व आवश्यक है सो वह अपनी इस कला का ये दोहरा उपयोग बखूबी करते हैं.
और एक क्षेत्र इनका सबसे प्यारा है वो है पत्रकारिता. जो सेंसिबल भी होते हैं, इनमें लगे / लगाये हुए सेंसिटिव लोगों का इस्तेमाल करते रहते हैं.
इनके ‘यूज़फुल फूल्स’ को जब समझ में आता भी है तब तक देर हो चुकी होती है. नौकरी करते रहने के सिवा उनके पास चारा नहीं होता.
वैसे इसी मकड़जाल को फैलाते हुए ये अपने लोगों को प्रमोट करते रहते हैं और विरोधी विचार वालों को निरस्त.
सहविचारियों को प्रमोट करने का परिणाम ये होता है कि एजुकेशन, आर्थिक प्लानिंग और पत्रकारिता में इनका तगड़ा नेटवर्क बनता है जिसमें यह बिरादरी अपने विरोधियों के खिलाफ बहुत ही एकता से लड़ती है.
जंगली कुत्तों को देखा है? झुण्ड में शेर या बाघ को भी परास्त कर देते हैं. कोई यहाँ से काटता है, कोई और कहीं से. बाघ तो अक्सर भाग ही जाते हैं.
विरोधी बलवान है तो पत्रकारिता से जनमत तैयार करते हैं. सेंसिबल लोगों को अक्सर रोजमर्रा की ज़िन्दगी से फुर्सत नहीं मिलती जो यह सब सोचें.
दुर्भाग्य की बात ख़ास कर के भारत में यह है कि नॉर्मल सेंसिबल लोग वामपंथियों जैसे नेटवर्क बनाने की सोचते नहीं हैं.
पश्चिमी देश उत्क्रांत हैं. वहां इस शत्रु को अच्छी तरह पहचानते हैं. इसी लिए पालते भी हैं ताकि सांप के ज़हर का उगलते ही उपयोग कर सकें.
वैसे उनके विद्यापीठों में सेंसिबल विचारों को वरीयता दी जाती है कि जो उनके राष्ट्र के हित में हो, उस विचार को प्रमोट किया जा सके. भले दूसरे राष्ट्र के घोर अहित का क्यूँ न हो!
लेकिन वे लड़ाइयों में फर्क समझते हैं. विचार को हराने के लिए विचार का विकास करते हैं.
दुर्भाग्य से अपने यहाँ सरकार को, उद्योग जगत को इस धारा में लॉन्ग टर्म निवेश की इच्छा नहीं. अभी-अभी कुछ ऐसे चिह्न दिख रहे हैं यह अच्छी बात है.
इस बार संघ एकत्रित हुआ और जन सामान्य को प्रेरित किया. लेकिन लोगों में पहले से ही कांग्रेस विरोधी भावना बलवान हो चुकी थी.
समर्थ पर्याय न दिखने के कारण जनता हताश थी. मोदी जी में वह पर्याय सामने आया तो कांग्रेस विरोध ने पकाया यह फल उनके झोली में आ गिरा.
यह चुनाव भाजप के गोल से ज्यादा कांग्रेस का सेल्फ गोल है. 2019 में भाजप की असली कसौटी होगी यह मोदीजी भी जानते हैं.
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(केंद्र में मोदी सरकार बनने के एक माह बाद 28 जून 2014 का लेख)