IC814 भारतीय प्लेन जो नेपाल से हाइजैक करके कंधार ले जाया गया था.
दिसम्बर’1999… TV पर लगातार खबरें आ रही थीं. विमान यात्रियों के परिवार वाले सरकार से अपहरणकर्ताओं की मांगें मान कर यात्रियों को छुड़वाने की मांग कर रहे थे.
टेलीविजन चैनल लगातार ऐसी खबरें दिखाकर और यात्रियों के परिवार वालों के इन्टरव्यू दिखाकर सहानुभूति खड़ी कर रहे थे. सरकार पर दबाव बना रहे थे. फिर जब सरकार ने उनकी मांगें मान लीं, यात्री छूटकर वापस आ गए तो एकाएक इन्ही चैनलों का सुर बदल गया.
यही चैनल लगातार दिखाने लगे कि सरकार दबाव में आ गई, सरकार कमजोर है, भारत एक सॉफ्ट-स्टेट है.
मैं तब फौज में था. फौज में गए हुए मुझे दो साल ही हुए थे. उसी साल मेरी शादी हुई थी, 6 महीने पहले. पत्नी अपने कॉलेज से छुट्टियों में आई थी. सच कहूँ, तब तक मैं उसे बहुत अच्छी तरह नहीं जानता था, हालांकि हमारा परिचय 7-8 साल का था, पर हमलोग साथ में पंद्रह दिन से ज्यादा नहीं रहे थे.
यह न्यूज टीवी पर देख कर मैंने पूछा – अगर इस प्लेन में मैं होता, तो तुम क्या करती?
उसने जवाब दिया – मैं क्या करती? मैं थोड़े ना सरकार से गिड़गिड़ाने जाती कि मेरे पति को किसी भी कीमत पर बचा लो, चाहे इसमें देश का कितना भी नुकसान हो जाए…
कल को तुम अगर लड़ाई पर जाओगे तो मैं क्या सरकार से गिड़गिड़ाऊँगी कि मेरे पति को बोर्डर पर मत भेजो? तुम फौज में हो, अगर तुम देश के लिए मरने को तैयार हो तो मैं भी देश के लिए तुम्हारे बिना जीने को तैयार हूँ… और यह सिर्फ हमारी-तुम्हारी ड्यूटी नहीं है, हर देशवासी की ड्यूटी है..
फिर ये टीवी वाले कौन हैं जो पूरे देश को यह इमोशनल ड्रामा दिखा कर कमजोर कर रहे हैं?
बाद में स्वपन दासगुप्ता का एक आर्टिकल पढ़ा इंडिया टुडे में. पढ़ कर मीडिया की तरफ देखने का मेरा पूरा नजरिया बदल गया.
उन्होंने लिखा था, मीडिया का एक बहुत बड़ा वर्ग ISI के पे-रॉल पर है. ये हर न्यूज को कुछ इस तरह से दिखाते हैं, जिससे देश का नुकसान हो.
उन्होंने इसी IC814 हाइजैकिंग का उदाहरण दिया था, कि पहले किस तरह से मीडिया ने परिवार वालों का पक्ष दिखाकर सरकार पर दबाव बनाया, बाद में जब सरकार ने मांगें मान लीं तो इसी के लिए सरकार की आलोचना की, देश को कमजोर दिखाकर पेश किया. दोनों स्थितियों में देशहित के विरुद्ध काम किया.
उन्होंने लिखा, ऐसा नहीं है कि मुझे ऐसा लिखने के पैसे ऑफर नहीं किए गए हैं. और इसकी कीमत इतनी लगाई जाती है, कि उसे नकारना ज्यादातर लोगों के लिए आसान नहीं होता.
बाद में मैंनें आँखें खुली रखीं, और ऐसे कितने ही उदाहरण देख पाया. एक उदाहरण है, 2001 दिसम्बर में संसद हमले के बाद हमारी सेनाएँ मोर्चे पर थीं. पाकिस्तान दबाव में था.
अपनी सेनाओं को हाई-अलर्ट पर रखने का खर्चा उठाने में उसकी कमर टूटी जा रही थी. तब एकाएक जून 2002 में कई पत्रिकाओं में एक साथ कई आर्टिकल आए कि हमारी सेनाएँ सीमा पर हैं, इससे उन्हें कितनी तकलीफ हो रही है… सेना का मनोबल कम हो रहा है…
अगर सेना का मनोबल कम भी हो, तो यह बात दुश्मन को नहीं बताई जाती. आपस में भी इसे स्वीकार नहीं किया जाता, जैसे भी हो मनोबल बढ़ाया जाता है. सेना हमेशा सीमाओं पर रहती है, हमेशा कष्ट सहती है… आप उनकी तारीफ में तो कभी कोई आर्टिकल नहीं पढ़ते. सेना का कष्ट तभी क्यों याद आया?
साफ है, यह खबर छापने में किसका फायदा था. सरकार पर दबाव बनाया गया कि हम अपनी सेनाएँ हटा लें जिससे पाकिस्तान राहत की सांस ले.
तब सोशल मीडिया नहीं था. मैं इसे देखकर बहुत छटपटाहट महसूस करता था. फिर फौज से बाहर आने के बाद मैं एक मंच तलाशता रहा जहाँ से मीडिया के इस चरित्र को उजागर किया जा सके.
राजनीतिक दलों का मंच बहुत ही कुंठित, कम बुद्धि और संकीर्ण सोच का मंच लगा. एक तो वहाँ से आपको कोई बात कहने का अवसर आसानी से नहीं मिलता, दूसरे उनकी अपनी विश्वसनीयता भी संदिग्ध होती है.
तब 2008 में मुंबई हमले के बाद मैंने नोटिस लिया, मीडिया कैसे जनता का ध्यान बंटा रही है. जनता के गुस्से को मोमबत्ती गिरोह ने हाइजैक कर लिया था, और वे इसे “सभी नेताओं” और “सभी राजनीतिक दलों” पर केन्द्रित कर रहे थे जिससे कांग्रेस की जिम्मेदारी पर सवाल ना उठाए जाएँ, उसके राजनीतिक नुकसान को कम किया जा सके.
तब हमने छोटे स्तर पर एक सोशल मंच बनाने का फैसला किया. हमने, यानि मैं, और मेरी पत्नी. कुछ और मित्रों ने पर्दे के पीछे से मदद की, माइक और स्टेज का इन्तजाम हुआ, और एक दिन चौराहे पर मैंने अपनी पत्नी और बच्चों के साथ खड़े होकर आतंकी हमलों के खिलाफ और इसमें सरकार और मीडिया की मिलीभगत के खिलाफ बोलना शुरू किया.
भीड़ जुटती गई. कार्यक्रम का कोई एजेंडा नहीं था. स्पॉटेनियस था. पहला कार्यक्रम बहुत सफल रहा. फिर हम हर रविवार किसी ना किसी चौराहे पर यह कार्यक्रम करते रहे. कुछ मित्रों के प्रयास से आज भी “राष्ट्रचेतना” नाम से यह मंच जमशेदपुर में जिंदा है.
फिर आया सोशल मीडिया. फेसबुक और ट्विटर ने मीडिया के इस चरित्र को बिल्कुल नंगा कर दिया है. तब जो बात पाँच सौ-हजार रुपये, और सारा दिन खर्च करके दो-तीन सौ लोगों तक पहुँच पाती थी, आज वह बात पाँच हजार मित्रों की मार्फत मल्टिप्लाई होकर लाखों लोगों तक पहुँचती है.
आज ऑपिनियन मेकर की भूमिका बिकी हुई मुख्य-धारा मीडिया के हाथ से निकल कर जनता के हाथों तक पहुँच गई है.
इसलिए अगर कोई आपको “फेसबुकिया” कहता है, तो इसे गर्व से स्वीकार कीजिए. आप देश के जनमानस को गद्दारों के चंगुल से आजाद करवा रहे हैं.
और जिन्होंने यह प्रयास सोशल-मीडिया के आने से पहले किया है, वे इसकी कीमत पहचानते हैं.