मैं अपने गाँव में हूँ. बभनगामा में.
गाँव में एक बैंक है, ग्रामीण क्षेत्रीय बैंक. वहाँ भी लाइन लगती है.
मैं जिस ज़िले से हूँ वो बिहार के जीडीपी में मुंगेर और पटना के बाद तीसरे नंबर पर है.
बिहार की औद्योगिक राजधानी है बेगूसराय. कहने का मतलब है कि व्यापार आदि का केंद्र है.
तीन दिन में दो-तीन गाँव गया हूँ. आज बहन को उसके ससुराल से लाने गया था. कल चाचा के गृहप्रवेश में गया था. उसके पहले एक दोस्त से मिलने उसके गाँव गया था.
मुद्दे की बात ये है कि बहुत लोगों से मिला. पिताजी का कहना था कि नोटबंदी से परेशानी तो है, लेकिन सही है.
मामाजी अपने साल भर के भतीजे को लेकर पटना के हॉस्पिटल में हैं और वहाँ पुराने नोट नहीं चल रहे. लेकिन किसी तरह लाइन में लगकर काम चल रहा है.
बहन के ससुर, अपने बेटे-बेटियों के साथ, दिन भर लाइन में लगकर अपने बेटे के फीस के लिए दो दिन से पैसा निकाल रहे हैं.
चचेरा भाई है जो किसी तरह गृहप्रवेश के भोज के लिए कारीगर लोगों को थोड़े पैसे देकर समझा रहा है और कारीगर भी समझ रहा है.
टेंट वाले को जेब से 200 निकाल कर देता है और कहता है कि स्थिति सुधरते ही दे देगा.
मैं बहन को जिस गाड़ी से लाने गया उसमें पेट्रोल पंप पर पुराने 500 देकर तेल डलवाया.
पंचायत में एक बैंक है जिसके कर्मचारी 9 बजे रात तक काम करते हैं ताकि किसी को परेशानी नहीं हो.
बगल का गाँव मुसलमानों का है. सुबह से उनकी महिलाएँ लाइन में लग जाती हैं, गाली देते नहीं सुना.
अच्छे-अच्छे लोग एटीएम और बैंक की लाइन में लगे हैं. पुलिस हर बैंक के पास तैनात है.
मैंने जो देखा वो लिख दिया.
गाँव में फेसबुक चलाने वाले अर्थशास्त्री कम होते हैं. गाँवों में वामपंथी संगठन को अभी सन्देश नहीं पहुँचा है दंगा शुरू करना है कि प्रोटेस्ट करना है.
दिल्ली से चला था तो जेब में 130 रूपये थे. 10 रुपया मेट्रो तक लगा. 65 का टिकट पटना के बाद लगा. पटना में एक मित्र ने 500 रूपए दे दिए कि सर रख लीजिए. मैं घर पहुँच गया.
चूँकि यहाँ की दीवारों पर ताज़ातरीन अर्थशास्त्रियों के आर्थिक आपातकाल वाले लिंक नहीं दिखते.
चूँकि यहाँ की टाइमलाइन पर कुछ नेताओं, मीडिया वालों का ट्वीट नहीं दिखता, और चूँकि इन जगहों पर लोग प्राइम टाइम नहीं देखते, यहाँ कहीं भी दंगा नहीं हुआ है. ना ही, दुर्भाग्य से, कोई सरकार को कोई कोस रहा है.
कोसने वाले वो हैं, जिनके पास अचानक 10 लाख, 20 लाख या करोड़ों में रूपये निकल आये हैं और वो, लोगों को खोज रहे हैं कि कैसे एडजस्ट हो.
एक ऑफर लेकर आया किसी के पास कि तीन परसेंट रख लो, बाकि दे दो अकाउंट में. बात नहीं बनी तो दूसरे को खोज रहा है. कुछ के पास इतना है.
जी बेगूसराय ठीक-ठाक अमीरों की जगह है और भूमिहार लोग ज्यादा हैं तो ज़मींदारी और दहेज़ का घटिया पैसा बहुतों के पास है. और ये ट्रेडिशनल भाजपा का वोट बैंक हैं.
बेगूसराय के नाम से सीरियल भी आता है. उसमें आपको ज्यादा नहीं दिखा रहा. बेगूसराय, लालू के जंगलराज की क्रिमिनल राजधानी भी रही है. बड़े बड़े रंगबाज़ हुए हैं.
लोग बात-बात पर, दिल्ली वालों की तरह माँ-बहन याद नहीं करते, गोली भी चला देते हैं.
जब यहाँ ये कहते हैं कि पितरिया धँसा देंगे, तो अपनी बात पर रहते हैं और धँसा देते हैं. पितरिया धँसाना गोली मारने को कहते हैं.
कहने का मतलब है कि लोगों के पास बहुत ज्यादा धैर्य नहीं है. लेकिन दंगा कहीं नहीं हो रहा.
और मैंने आपको रैंडम सैंपल बताया है, अलग अलग जगह का. जिसमें जाति, धर्म, लिंग, क्लास, स्टेटस आदि की विविधता है.
सब लोग खुश हैं. जो खुश नहीं हैं उनके पास बहुत ज्यादा नोट हैं. जो भी ये कह रहा है कि ‘आम लोगों को परेशानी हो रही है’ वो वही है जिसे अपनी परेशानी है. और परेशानी क्या है वो आपको पता है.
बात यही है कि बेगूसराय में दंगे नहीं हो रहे! साला, बेगूसराय में मार क्यों नहीं हो रहा!