भारतीय लोकमानस की रचना सहस्त्राब्दियों के सुगठित वैज्ञानिक विधि निषेधों का परिणाम रही, जिसका लक्ष्य श्रेष्ठता की ओर ले जाना रहा.
पशुत्व से मनुष्यत्व, मनुष्यत्व से देवत्व की यात्रा, वो भी लोकसंग्रही भाव से, सिद्ध करने के लिए एक बालक को साधन संपन्न बनाने की जो विशिष्टता भारतीय परम्परा में संगुफित है, वैसा अन्यत्र नहीं है.
इसमें उसकी निजता, वैयक्तिकता का पूर्ण सम्मान करते हुए, उस बालक को समाज राष्ट्र के अविभाज्य अंश का रूप दिया जाता रहा है.
जहाँ बालक के समग्र संस्कारित विकास के ऊपर इतना विषद चिंतन और उसके आधार पर अनेकों पद्धतियों व्यवस्थाओं को अंतरर्ग्रंथित किया गया हो, उस राष्ट्र में जवाहर लाल नेहरु जैसे विकृत, मूलहीन, मूल्यहीन व्यक्ति के दिन बाल दिवस मानना अनादिकाल से श्रेयस सिद्ध कर रही लोक रचना को समाप्त करने का षड्यंत्र है.
जो व्यक्ति अपने को हिन्दू ही नहीं मानता था, जो भारत की भाव-भूमि से कटा था, जिसका लोकमानस से कोई जुड़ाव नहीं था, न ही हिन्दू परंपरा से, जो कहता फिरता था कि उसका हिन्दू होना दुर्घटना है, जिसका चरित्र आदर्श नहीं हो सकता ऐसे व्यक्ति के जन्मदिन को बाल दिवस घोषित करने में तत्कालीन राजनीति के विशुद्ध स्वार्थ जुड़े थे, और आज जुड़े भी हैं.
ग्रीस, मिस्र, चीन, जापान, अफ्रीका, दक्षिण पूर्वी एशिया आदि में जो पद्धतियां मिलती है उनपर ऋषिदृष्ट्य कालेतर तत्वों को देखा जा सकता है. वर्तमान में भी इस्रायल राष्ट्र सांस्कृतिक सामरिक पुनरोदय में किबुत्ज़ व्यवस्था की अतिमहत्वपूर्ण भूमिका रही है. जिसका आधार बालक को ही रखा गया.
जीव के गर्भस्थ होते ही हमारी धार्मिक लोक व्यवस्थाएं स्वयमेव संस्कारित करने का कर्म आरम्भ कर देती थी.
संस्कारों के संबंध में आद्य गुरु शंकराचार्य ने कहा है-
संस्कारों हि नाम संस्कार्यस्य गुणाधानेन वा स्याद्योषाप नयनेन वा॥
-ब्रह्मसूत्र भाष्य 1/1/4
अर्थात व्यक्ति में गुणों को निषेचित करने के लिए जो कर्म किया जाता है, उसे संस्कार कहते हैं.
गर्भाधान संस्कार, पुंसवन संस्कार और सीमन्तोन्नयन संस्कार तो जन्मपूर्व ही करने के निर्देश है.
स्मृति निर्देशित सोलह (१६) संस्कारों में दस संस्कार तो युवावस्था से पूर्व हो जाते थे. जिससे उसके जीवन की दिशा तय होती थी. बालक समाज की उपादेय इकाई बनता अपनी निजता को अपने कुल, जनपद राष्ट्र और अंतत: धर्म के श्रेयस के लिए लगाता.
बाल्यकाल में श्री राम, श्री कृष्ण से आरम्भ हुई परमब्रह्म अवतरित स्वरूप से भक्तराज दैत्याधिपति प्रहलाद, नचिकेता, ध्रुव, आरुणी, अभिमन्यु, राजा भरत ऐसी दिव्य विभूतियों से आगे अनवरत श्रृंखला है जो आधुनिक समय तक अनवरत चली आ रही है……
लोकमानस को सदियों की तपस्या से गढ़ा जाता है, रचा जाता है ….
हमारे यहाँ नेतृत्व उसको कुपोषित कर मार रहा है…
सरकार सत्ता धर्मानुरागी नहीं है. यदि आज सरकार चाहे तो यह घोषणा कर सकती है कि बाल दिवस मिया जवाहर लाल के जन्मदिन पर नहीं होगा अपितु अमुक विभूति के नाम पर होगा, तो क्या किसी में साहस है कि विरोध कर ले…
नहीं न…
लोक अपनी जड़ो को बचाने के संघर्ष में उतर चुका है ….
नेतृत्व यह समझे तो अच्छा है …
बालक को बोझ बनाने वाली मानने वाली व्यवस्था को वह अपने सीमित साधनों और योग्य नेतृत्व के अभाव में भी खारिज करने लगी है…
अन्यथा युद्ध तो उसने आरम्भ कर ही दिया…
जय जय सनातन….
– देवेन्द्र शर्मा