जब बिल्कुल छोटे थे और दूरदर्शन पर हीमैन और सिग्मा सिटी देखते थे तो बोफोर्स सुना. कुछ बड़े हुए और चंद्रप्रकाश द्विवेदी का चाणक्य देखने लगे तो चारा चरने वालों की तारीफ़ कान में पड़ी.
कुछ और बड़े हुए और ज़ीटीवी पर जंगली तूफ़ान टायर पंक्चर देखने लगे तो लखूभाई पाठक और हर्षद मेहता के साथ नरसिम्हा राव की गलबहियाँ आम हुईं.

वक़्त बीता, फिलिप्स टॉप टेन पर मोहरा का ‘तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त’ गूँजा तो सुखराम जी के दूरसंचार कारनामों के पिटारे खुले.
फिर तो कभी कल्पनाथ राय के चीनी के चक्कर तो कभी शरद पवार के कुकर्मों के चिट्ठों से होते हुए 2जी, कोयला तक बाढ़ आ गई.
बेशक़ बीच में ताबूत का किस्सा भी सुना. लेकिन इस बात पर बेहद फ़ख़्र है कि पिछले ढाई साल साफ़ गुज़रे, और पठानकोट-उड़ी जैसे जिन मुद्दों पर मुझे ख़ुद बहुत ज़्यादा और गंभीर गुस्सा था उन पर भी उम्दा जवाब दिया गया.
अब भी जाली नोट उद्योग, हवाला और देशी काले धन की कमर जैसे टूटी है वह मेरे लिए अगले 50 नहीं 500 दिन देने के लिए काफी है. आपका पता नहीं…
- अरविन्द कुमार