आज एक बड़ी अजीब सी घटना सुनने को मिली…. हमारे एरिया के एक जाने माने पुराने डॉक्टर थे… समीर टंडन… उनके क्लिनिक की उम्र लगभग मेरी उम्र के बराबर थी…
एक मरीज को देखने की फीस 250 रूपये थी. दिन रात मरीजों की भीड़ उमड़ी रहती थी. कई बार उनकी टेबल की दराज पर मेरी नजर पड़ी थी.
दिन भर जो पैसे पानी की तरह बरसते थे वो उसमें भूसे की तरह ठूंसकर भरे रहते थे. ऐसा लगता था कि अगर पूरी दम लगाकर भी खर्च करते होंगे तो भी शायद दसवाँ हिस्सा ही खर्च कर पाते रहे होंगे.
आज उनका निधन हो गया… एक बार तो विश्वास नहीं हुआ… इधर उधर लोगों से जानकारी ली तो पता चला जिस वक्त 1000, 500 की नोट बंद होने की खबर फैली, डॉक्टर साहब बैठे नोट गिन रहे थे.
खबर सुनते ही मूर्छित होकर गिर पड़े. हार्ट अटैक आया था. आज देहांत हो गया. समझ नहीं आ रहा इस घटना को सुनने के बाद मेरे दिमाग में कैसी प्रतिक्रिया उमड़ रही है.
एक डॉक्टर बनने के लिये कोई एक या दो साल तैयारी करता है. फिर पांच साल mbbs करता है. फिर md, ms… वगैरह वगैरह. शायद एक ठीक ठाक डॉक्टर कहलाने में उसकी जिंदगी के दस साल खप जाते होंगे.
फिर अगर क्लिनिक चलाता है तो और दस साल मार्केट में जमने में लग जाते होंगे. फिर इसका फल भी मिलता है. अंधाधुंध मिलता है. मेरा अनुमान है कि डॉक्टर साहब की कुल चल, अचल संपत्ति में से सारे 1000, 500 के नोट माइनस कर दिये जाते तो भी इतनी बचती कि उनकी अगली तीन पीढ़ियाँ बैठे बैठे मौज से गुजर बसर करतीं.
क्या हो गया जो 1000, 500 के नोट बंद हो गए तो, अगर उनकी आधी संपत्ति भी 1000, 500 की होती तो भी कौन पहाड़ टूट पड़ता? पूरा काला धन निकालकर 10% भी बचता तो क्या वो जीने के लिये पर्याप्त नहीं होता? क्या वो नोट जिंदगी से ज्यादा कीमती थे?
काश डॉक्टर साहब ने अपने मरीजों से कुछ सीखा होता. जो खून निचोड़ देने वाली परिस्थितियों से लड़तें हुये अपना, अपने प्रियजनों का इलाज कराने आते थे, जीने की उम्मीद लिये आते थे. क्यों डॉक्टर साहब किसी एक मरीज की भी आँख में झांककर जीवन संघर्ष नहीं देख पाये?
इतनी बड़ी पढ़ाई पढ़कर बड़े आदमी तो बन गये, पर जिंदगी का एक बहुत ही मामूली, छोटा सा सबक पीछे. कहीं बहुत पीछे छोड़ दिया.
क्या मिला जीवन भर की तपस्या का फल? कुछ कागज के टुकड़े जिन्हें जिंदगी के लिये कमाया वही कागज के टुकड़े जिंदगी लील गये. क्या फायदा ऐसा कमाने का?