नीले आकाश को अपने आँचल में समेटे बैठी है वो नीलांचल पर्वत पर, जहां से प्रेम की शुद्ध ऊर्जा से सृष्टि को संचालित किये हुए है. जीवन की निरंतरता के लिए स्त्री के विशेष अंग को अंगीकार करना किसी योगी के लिए भी कठिन है, वो उसे उतनी ही सरलता से अंगीकार करती है.
शिव और शक्ति के योग से निकली विशेष तरंगों पर न जाने कितनी पोथियाँ लिखी गयी है, लेकिन पोथी पढ़ कर ही यदि ब्रह्माण्ड के रहस्य जाने जा सकते तो ये ब्रह्माण्ड कभी इतना रहस्यपूर्ण नहीं होता.
देवी की योनि को पूजने वाले पंडितों को भी उस रहस्य का पता नहीं, जिस रहस्य को इन चट्टानों ने केवल थोड़ा सा खिसककर समझा दिया कि जब प्रकृति को जीवन को जन्म देना होता है तो चट्टान जैसा हठी भी राह दे देता है.
पुरुषों से बराबरी की लड़ाई लड़ती स्त्री नहीं जानती कि उसकी कौन सी शक्ति का वो अपमान कर रही है. रजस्वला होने के सौभाग्य को बोझ समझने वाली नवयौवनाओं को स्त्री होने के गौरव को शब्दों में नहीं समझाया जा सकता.
और हर किसी के समझने की बात है भी नहीं यह कि स्त्री जब अपने पूर्ण स्त्रीत्व को प्राप्त करती है तो वो उसी शक्ति का रूप होती है, जिसके प्रेम और विरह में शिव ने तांडव कर पूरी सृष्टि को भस्म करने की ठान ली थी और तब विष्णु ने देवी के निर्जीव शरीर के टुकड़े कर 51 जगहों को जीवंत कर शक्तिपीठ बना दिए थे.
एक सामान्य मनुष्य की तो कल्पना के भी परे हैं कि पुरुष अपनी स्त्री की देह को काँधे पर उठाए दुःख की चरम सीमा को लांघ रहा है और कोई आकर उससे उसका वो दुःख ही छीन ले जाए.
उस समय तो वो देवता भी सबसे क्रूर माना जाएगा. लेकिन पर्वतों की कंदराओं में ध्यानस्थ योगी ही समझ सकते हैं कि मृत देह से जीवन को पुन: प्राप्त करने के लिए यदि आपकी कल्पना से भी परे क्रूरता पर देवता तक उतर आते हैं तब भी उसके पीछे कोई न कोई ब्रह्माण्ड का रहस्य होता है.
इन शक्तिपीठों को इसीलिए इतने दुर्गम पहाड़ों पर बनाया गया था कि वो स्वार्थ बुद्धि से संचालित सामान्य मनुष्य की पहुँच से बाहर रहे, और केवल ऊर्जा तरंगों से संचालित तपस्वी ही इन शक्ति पिण्डों के दर्शन की पात्रता हासिल कर सके, उनका आशीर्वाद प्राप्त कर सके.
माँ कामाख्या के अम्बुवाची वस्त्र को प्रसाद समझ वहां भी मेले लगाने वाले उन शक्ति पीठों में व्याप्त तरंगों को प्रदूषित कर साधकों की कितनी हानि कर रहे हैं ये कोई नहीं समझ सकता.
लेकिन मैं एक स्त्री होकर इतना समझ सकती हूँ कि रजस्वला होने की प्रक्रिया से गुज़रना और उसके बाद के स्नान के बाद फिर से अपने पुरुष के लिए समर्पित होने का भाव क्या होता है.
जब माँ कामाख्या रजस्वला होती हैं, मंदिरों के पट बंद होने के साथ सम्पूर्ण सृष्टि तीन दिनों तक रजस्वला हो जाती है, चौथे दिन सद्य स्नाता माँ जब दोबारा प्रकट होती है तो सम्पूर्ण सृष्टि भी स्नान कर चुकी होती है…. एक बार फिर अपनी योनि को पुजवाने के लिए जिससे आज की नारी वंचित है….
जिसके कारण ही सृष्टि संचालित है… जिसके कारण ही मुझे गर्व है कि मैं एक योनीधारी स्त्री हूँ… जिस योनी में एक “भग” भी होता है जिसकी वजह से ही “भगवान” शब्द बना है…
माँ मैं कृतज्ञ हूँ… कि तूने मुझे एक स्त्री होने का सौभाग्य दिया, एक माँ होने का… शक्ति होने का… और प्रार्थना करती हूँ कि जो भी आत्मा स्त्री देह में जन्म लेती है उसे उसकी शक्ति के दर्शन प्राप्त हो जैसे तूने मुझे दर्शन देकर मेरे नाम को चरितार्थ किया है….. माँ जीवन शैफाली
