दिल्ली के प्रदूषण को हम सब आज सुन और देख रहे हैं. परन्तु एक प्रश्न विचारने योग्य है कि क्या यह प्रदूषण पिछले 15 दिन या एक वर्ष से बढ़ गया है.
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि यह प्रदूषण की मात्रा जिसे PM10 कहते हैं, 2008 में 198 थी. 2010 तक आते आते 270 हो गयी. जो अब लगभग 700 के पार हो गयी है. यह हर वर्ष लगभग 17 से 20% दर से बढ़ रही है तो आज अचानक इस पर इतनी बात क्यों?
आइये पहले इसके कारणों पर विचार करते हैं PM का अर्थ है particulate matter अर्थात हवा में धूल या मिट्टी के कण जिसका अंतर्राष्ट्रीय मानक है 60 ग्राम प्रति घन मीटर. इसका सबसे बड़ा कारण होता है कि जहां जहाँ पर निर्माण कार्य चल रहा है वहां की धूल मिट्टी है.
आंकड़ों के अनुसार इसका योगदान 50% के आसपास है. दिल्ली में जितने भी पुल मकान और बड़ी बड़ी इमारतें बन रही है उन सब से यह प्रदूषण बढ़ रहा है दूसरा बड़ा कारण है कि कल कारखानों से निकलने वाला धुंआ जो कि लगभग 25% का योगदान देता है.
शायद आप कहें कि इनकी आवशयक्ता पड़ने लगी है परन्तु मूल में इसका कारण दिल्ली की बढ़ी हुई जनसँख्या है. शहरों की तरफ रोज़गार के लिए पलायन करने वालों की रोक ही नहीं अपितु आये लोगों को ग्रामीण क्षेत्र में वापिस भेजने के अतिरिक्त कोई अन्य चारा मुझे नहीं लगता हैं.
1991 की नीतियाँ जब से लागू हुई है जिसके कारण गाँवों के रोज़गार ख़त्म होते गए हैं दिल्ली की जनसँख्या 94 लाख से आज 2016 में 1 करोड़ 86 लाख यानी दोगुनी हो गयी है.
अब इतने लोग आये नहीं तो उनके द्वारा प्रयोग में आने वाली सड़कें, यातायात के संसाधन इत्यादि सबकी आवश्यकता पड़ेगी. इसके साथ ही इतने में से लगभग 30% लोग झुग्गी झोंपड़ी में रहते हैं जहां न तो मानवीय जीवन है उनके लिए और न ही स्वछता. फिर वह जब बीमार पड़ेंगे तो उनके लिए सस्ते अस्पताल और अन्य सुविधाओं की आवश्यकता.
किसी भी सरकार में एक भी की भी नीयत ग्राम से आये हुए लोगों को वापिस भेजने की नहीं है. यही सबसे बड़ा कारण जनसँख्या बढ़ने का है और इसके साथ ही आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य सुविधाओं के लिए दिल्ली छोटा प्रदेश हो गया.
इसलिए यही कहानी हर महानगर की है. जब तक ग्रामीण जीवन में ही रोज़गार कि व्यवस्था और शहरी पलायन को रोका नहीं जायेगा इसका स्थायी समाधान नहीं होगा.
यह देश जो पूरे विश्व पर 1700 वर्षों तक एक सशक्त अर्थव्यवस्था के रूप में रहा उसका मुख्य कारण था कि हमारे ग्राम सशक्त थे. इस देश में अंग्रेजों से पहले जितने भी विदेशी या स्वदेशी शासक रहे वह ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सेंध नहीं लगा पाए थे.
अंग्रेजों ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सेंध लगाई और हम पर राज्य किया. दुर्भाग्य से उसी नीति को बढ़ाया गया. कार्ल मार्क्स नामक अर्थशास्त्री ने भारत की अर्थव्यवस्था के विषय में यही कहा था कि इस देश के ग्रामीण स्वराज्य है और हर ग्राम अपने आप में सशक्त है जिसके कारण देश आगे बढ़ रहा है.
इसी कारण से हमारे यहाँ जाति व्यवस्था चली जो कर्मों पर आधारित थी. चर्मकार अपनी संतान को चर्मकार, कृषक अपने परिवार को कृषक बनाता था क्योंकि पर्याप्त रोज़गार उपलब्ध था इसीलए पलायन नहीं था. आइये अब सोचें कि इसका फायदा कैसे विदेशी कंपनियों ने उठाया.
कुछ वर्ष पहले पानी इन कंपनियों ने खरीदा और परिवारों में बेचना शुरू किया जबकि शुद्ध पानी सरकार की जिम्मेवारी थी. सारी जनता को डराया गया कि अमुक अमुक बीमारी पानी से होती है.
इसलिए लोगों ने मजबूरी में यह पानी खरीदना शुरू किया. जलाधिकार जैसी बहुत सी संस्थाएं इसका विरोध करती आ रही हैं. अब इस बात को देखिये कब आपने हमारी अभिनेत्री हेमा मालिनी जी को air purifier बेचते देखा और उसके कितने दिनों बाद या साथ साथ प्रदूषण से डराया जाने लगा.
यह भी समझें कि यह वायु शुद्धक संयंत्र आपके कमरे से धूल मिट्टी को एक अलग स्थान पर कर देता है परन्तु फिर जब आप उसके फ़िल्टर को साफ़ करते हैं तो फिर वही कण हवा में समा जाते हैं तो अंत में वातावरण में धूल के कण वातावरण में ही रह जाते हैं परन्तु शायद आप 17000 रुपये खर्च करके मानसिक संतुष्टि प्राप्त कर लेते होंगे.
समाचारों के अनुसार वायु शुद्धक संयंत्र की बिक्री पिछले 2 वर्षों में 4 गुना बढ़ गयी है. आप स्वयं सोचें कि क्या हम इससे अंतिम समाधान प्राप्त करेंगे. दूरगामी और जड़ से इस समस्या को समाप्त करने का क्या उपाय हो रहा है?
अब रही फसल जलाए जाने की बात तो सरकार उस फसल के बचे हिस्से को स्वयं खरीद करके किसी तरीके से उसका निष्कासन करे. अगर आप आज इतनी समस्याओं के बावजूद भी खेती करने वालो को और परेशानी देंगे तो सरकार अन्न के आयत को विवश हो जाएगी.