एक कंपनी पर लगी एक दिन की पाबंदी पत्रकारिता का गला घोंटना कैसे?

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मुझे भी समझना था कि एक मीडिया मुग़ल पर एक दिन का प्रतिबन्ध कैसा है? ये एक कंपनी पर लगी एक दिन की पाबन्दी पत्रकारिता का गला घोंटना क्यों है?

मेरे लिए मगर जवाब नहीं आते क्यों मेरे लिए बागों में नहीं बिहार में बहार है. मेरे लिए जवाब इसलिए भी नहीं आते क्योंकि मेरे सवाल में मीडिया मुगलों का नाम नहीं है, मेरे पत्रकारिता के उदाहरण का नाम नहीं है.

उसने बिहार के टॉपर की असलियत सामने लाने वाला इंटरव्यू किया था. मेरे उदाहरण में जो जो दूसरा पत्रकार है उसने चार मंजिला इमारत पर लटक कर परीक्षा में चीटिंग करवाते लोगों की तस्वीर ली थी.

अगर आपको भी इन पत्रकारों का नाम याद करने के लिए गूगल का सहारा लेना पड़ रहा है तो शर्माइये मत. ये आपकी तथाकथित पत्रकारिता का असली चेहरा है.

ये वो शर्मनाक चेहरा है जो सिर्फ एक आयातित विचारधारा के लोगों को पहचानता है. ये वो बेशर्मी है जो पत्रकार की अभिव्यक्ति कहकर एक मीडिया मुग़ल के दरबार में कोर्निश बजाती है.

ये वो निर्लज्जता भी है जो भारत की जमीन पर कभी बारिश कभी गर्मी में काम करने वालों के नाम भूलकर स्टूडियो के ए.सी. में कोट पहने टेम्परेचर सही ना होने की शिकायत करती है.

इसके चेहरे को दर्शाने के लिए माइम से बेहतर विकल्प भी नहीं मिलता. इसलिए नहीं मिलता क्योंकि ये सच को सफ़ेद और झूठ को काला कहने में हिचकता नहीं.

इसके लिए काला और सफ़ेद रंग ही विकल्प हैं क्योंकि इसके सवाल बीच के ग्रे एरिया में नहीं पाए जाते. रंग पुते चेहरों आप जो फर्क नहीं कर पाते वो पत्रकारिता का चेहरा है.

सब एक ही जैसे दिखते हैं इसमें साहब, सेक्युलर रविश और संघी अर्नब का फर्क नहीं कर पायेंगे. इनके लिए माइम बिलकुल अच्छा उदाहरण इसलिए भी है क्योंकि इनकी आवाज नहीं होती.

आइये बताइये इन उदाहरणों के हवाले से कि एक कंपनी पर लगा प्रतिबन्ध वो भी कानून तोड़ने के लिए कैसे पत्रकारिता पर हमला होता है?

इन उदाहरणों से ये भी समझिएगा कि कैसे बार बार नियमों को तोड़ने वाले मीडिया मुग़ल कानून तोड़कर पत्रकारिता के नाम के पीछे जा छुपते हैं?

मुझे इन दस हज़ार महीना कमाने वालों के हवाले से ये भी बताइये कि करोड़ों कमाने वाली कंपनी पत्रकार कैसे होती है?

मुझे आशा ही नहीं विश्वास भी है कि जवाब नहीं आएगा. ठीक वैसे ही नहीं आएगा जैसे सिवान में पत्रकार के गोली खाने पर आपातकाल नहीं आया था.
ठीक वैसे ही नहीं आएगा जैसे भारत के पत्रकारों का नाम मॉस कॉम के सिलेबस की किताबों में नहीं आता.

बिलकुल वैसे ही नहीं आएगा जैसे जनता के सवालों का जिक्र मीडिया मुगलों की न्यूज़ डिबेट में नहीं आता.

मगर क्या करें हम आम जनता हैं. हम वो हैं जिसके लिए, किस की और जिसके द्वारा लोकतंत्र चलाया जाता है. वही लोकतंत्र जिनके लिए काम करने वाला चौथा खम्भा पत्रकारिता कहलाता है.

हम वही हैं जिसे डपट कर आप चुप कर देना चाहते हैं साहब. बिलकुल स्कूल के उस बच्चे जैसा, जिसने मास्टर साहब से पूछ लिया हो कि गाँधी राष्ट्रपिता क्यों थे और जो छड़ी खाकर अब दरवाजे पर कान पकडे नील डाउन है.

आपका का साहस नहीं जवाब देने का, आप बड़े लोगों से कड़क कर जवाब मांगने का हमारा रसूख नहीं. हम 7 दशक इंतज़ार करते आये हैं साहब.हम आपके जवाब का इंतज़ार करेंगे!

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