नि:शब्दता को जब शब्द पर सवार होने की आवश्यकता पड़ती है तो उसे किसी अघोरी की काया से भी गुज़रना पड़े तो हिचकता नहीं है…
रूपांतरण की चरम सीमा पर आकर नीरवता का आकाश छन्न से टूट कर धरती पर बिखर जाता है जिस पर चलकर कोई तपस्वी अपनी पूर्णता के साथ प्रकट होता है और आसमानी हवन के साथ शुरू होता है दुनियावी सत्संग ……
ऐसे ही किसी पल में जन्मों से सुषुप्त अवस्था में पड़े चक्र अंगड़ाई लेकर जागृत होते हैं और संगीत और साहित्य की ऊंगली थामे चल पड़ते हैं अपनी संभावित यात्रा पर…
अध्यात्म के टीले पर एकांकीपन को टिकाकर कोई दबे पाँव आता है मैदानों में और भीड़ का चेहरा बन जाता है…
ये जो भीड़ की आग बड़ी बड़ी लपटों के बावजूद किसी योगी के अल्पविराम पर आकर रुक जाती है … यही वो समय होता है जब उस आग से कर्मों की हिसाबी किताब को मुखाग्नि देकर साक्षी भाव की कर्मठता को क्रियान्वित कर दिया जाए…
जब ये सबकुछ महसूसना पर्याप्त हो जाए और लगे कि दुनिया की छाती को चीरकर उसकी धड़कन में उस एहसास को भर दें, तब किसी की कलम में शब्दों का स्पंदन उतरता है जो आँखों से गुज़रते हुए ॐ की ध्वनि में तब्दील हो जाता है जहां देखना और सुनना भले दो क्रियाएँ हो लेकिन महसूस एक ही होता है… नाद ब्रह्म…