एक खानदानी टाइप फौज़ी, ब्राह्मण परिवार था. यानि जिसमें पिता, चाचा, भाई, भाइयों की ससुराल वाले सब के सब फौजी ही हों वैसे टाइप की फैमिली भी होती है.
ऐसे ही एक परिवार के मेजर सोमनाथ शर्मा थे. ओह बाप, भाई टाइप शब्दों से आप किसी धोखे में हैं तो बता दें कि इनकी बहन मेजर कमला तिवारी भी फौज़ में ही हैं. इनके परिवार के साथ जुड़े हुए सदस्यों में एक थी सावित्री खानोलकर. वो इनके छोटे भाई की सास होती. उन्होंने परमवीर चक्र का डिजाईन बनाया था.
मेजर सोमनाथ शर्मा 31 जनवरी 1923 को पैदा हुए थे. इनका फौजी सफ़र हैदराबाद रेजिमेंट से शुरू हुआ था जो बाद में ब्रिटिश इंडियन आर्मी के इंडियन आर्मी होने पर कुमाऊं रेजिमेंट हो गया.
द्वित्तीय विश्व युद्ध के दौरान जंग देख चुके मेजर शर्मा को चोट आ गई थी. हॉकी खेलते वक्त आई चोट के कारण उनका बायाँ हाथ प्लास्टर में था. ऐसे में जब 3 नवम्बर 1947 की रात उनकी कंपनी को बडगाम रवाना होने का हुक्म हुआ तो उनके कमांडिंग अफसर का ख़याल था कि टूटे हुए हाथ में मेजर सोमनाथ शर्मा को रुक जाना चाहिए. लेकिन मेजर शर्मा अपनी टुकड़ी के साथ ही रहना चाहते थे.
देर रात मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी को एयरलिफ्ट करके श्रीनगर के पास पहुँचाया गया. सुबह होते होते मेजर ने अपनी पोजीशन संभाल ली थी. जहाँ उन्होंने मोर्चा संभाला वहां से गुजरकर ही श्रीनगर और एअरपोर्ट पहुंचा जा सकता था. उनके मोर्चे पर करीब 500 से 700 कबिलाइयों ने हमला किया.
मेजर पीछे हटने के बदले डटे रहे. एक एक करके अपने साथियों को खोते जा रहे मेजर एक हाथ से अपने साथियों को मैगज़ीन भरकर देते जा रहे थे. दोनों तरफ से चलती भीषण गोलीबारी के बीच उन्हें हवाई पट्टी पर जहाजों के लिए सिग्नल बांधते देखा गया था.
एक ही हाथ से उन्होंने अपनी LMG पोस्ट भी संभाली. उनका आखरी सन्देश था कि दुश्मन करीब पचास मीटर पर है और हम तीन तरफ से घिरे हुए हैं. लेकिन हम पीछे नहीं हटेंगे, हम आखरी गोली और आखरी सिपाही तक लड़ेंगे.
गोले बारूद के ढेर पर एक विस्फोट होने के बाद मेजर सोमनाथ शर्मा वीरगति को प्राप्त हुए. गिरने से पहले तक इनकी टुकड़ी ने करीब दो सौ कबीलाई हमलावरों को मारकर आक्रमणकारियों की कमर तोड़ दी थी. उन्होंने शत्रु सेना को छह घंटे रोके रखा.
अपने ही खानदान के लोगों द्वारा डिज़ाइन किया परमवीर चक्र लेकर घर आये.
उनकी कहानी पर जब परमवीर चक्र नाम का टीवी धारावाहिक बना था तो मेजर सोमनाथ शर्मा का किरदार फारुख शेख ने निभाया था. उनका रचा इतिहास कई सवाल भी खड़े करता है.
जब पूरा पूरा परिवार ही सेना की नौकरी में कई कई पीढ़ियों से हो तो नौकरी की जरुरत तो सेना में नहीं ले गई होगी ? कोई परचून की दूकान खोलकर घर बैठ सकते थे. थोड़ी बहुत जमीन तो जरूर होगी, खेती ही कर लेते.
चलो माना चले ही गए तो इतने लोग परिवार के ही हों जहाँ, वहां ओर्डीनेन्स टाइप कुछ ले लेते. फ्रंट पे लड़ने क्यों चले गए, गोली का जवाब गोले से देने?
जिनकी विचारधारा में कहीं राष्ट्र की अवधारणा ही ना हो वो सोच सकते हैं, कि फौज में जाना एक नौकरी होती है. बाकी हिन्दुओं के लिए तो “जय सोमनाथ” के भी कई अर्थ होते हैं! जय सोमनाथ !!!